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जैनदर्शन में तर्कप्रमाण और न साधारण विश्वास ही, अपितु वह हमारी अन्तःप्रज्ञा की आश्वस्ति है । एक विवेक पूर्ण बौद्धिक अवस्था है। जिसकी सत्यता के बारे में हमें कोई अनिश्चय नहीं। यदि हम तर्क के इस स्वरूप को मान्य करते हैं तो उसे कोई प्रतीकात्मक रूप देना कठिन है- किन्तु जैन दार्शनिकों ने 'व्याप्तिज्ञानमूहः' कहकर प्रमाण और प्रमाणफल में अभेद मानते हुए तर्क का तादात्म्य ब्याप्ति ज्ञान से किया है अतः व्याप्ति ज्ञान की जो प्रक्रिया है उसी आधार पर तर्क के प्रतीकात्मक स्वरूप का निर्धारण किया था सकता है
१-हे. सा - सहभाव एवं क्रम भाव का अन्वय दृष्टान्त - भावात्मक उपलम्भ २- सा. हे - सहभाव एवं क्रम भाव का अन्वय व्यतिरेक दृष्टान्त
अभावात्मक उपलम्भ ३-(हे. सा). ( सा. हे)-व्यभिचार अदर्शन - अनुपलम्भ ४-:.सं(
हेसा )- व्याप्ति सुझाव ५-(
हेसा ) (हे सा)- संशय ६-( सा.हे) संशय निरसन - व्यभिचार अदर्शन के आधार पर ७-:.साहे व्याप्ति(अभावात्मक) ८- हेसा व्याप्ति(भावात्मक)
जबकि
सा-साध्य •-सहभाव,और 5-आपादन -निषेध
=-आपादान निषेध, व्याप्ति निषेध
. इसे निम्न ठोस उदाहरण से भी स्पष्ट किया जा सकता है-याद हम वह परम्परामत उदाहरण लें जिसमें धुआं हेतु है और अग्नि साध्य है तो सर्वप्रथम (१) धुआं के साथ अग्नि का सहचार देखा जाता है (यत्सत्त्वे यत्सत्त्वं इत्यन्वयः) फिर (२) अग्नि के अभाव में धुएँ का भी अभाव देखा जाता है (यदभावे यदभावः इति व्यतिरेकः) । इस प्रकार अन्वय और व्यतिरेक दोनों में सहचार देखा जाता है पुनः(३) ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं देखा जाता है कि धुआं है किन्तु अग्नि नहीं है अथवा अग्नि नहीं है और धुआं है। अर्थात् व्यभिचार का कोई भी उदाहरण नहीं मिलता है (४) इसलिए सम्भावना यह प्रतीत होती है कि धूम और अग्नि में व्याप्ति सम्बन्ध या अविनाभाव सम्बन्ध होना चाहिए । (५) पुनः यह संशय हो सकता है कि धुएँ और अग्नि में व्याप्ति सम्बन्ध होगा या नहीं होगा । (६) किन्तु यह दूसरा विकल्प सत्य नहीं है क्यों कि अग्नि के अभाव मे धूम की अस्थिति का एक भी व्यभिचारी. उदाहरण नही मिला है (७)अतः निष्कर्ष यह है कि अग्नि के अभाव और धुएँ के अभाव में व्याप्ति सम्बन्ध या अविनाभाव सम्बन्ध है । (८) इसी आधार पर धूम के सद्भाव और अग्नि के सद्भाव में
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