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जैनदर्शन में तर्कप्रमाण
न्याय दर्शन में तर्क का स्वरूप तुलनात्मक विवेचन
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न्याय दर्शन यद्यपि तर्क को स्वतंत्र रूप से प्रमाण नहीं मानता है, फिर भी वह उसे प्रमाणज्ञान एवं व्याप्ति ग्रहण में सहयोगी अवश्य मानता है । वात्स्यायन कहते हैं कितर्को न प्रमाणसंगृहीतो न प्रमाणान्तरम् । प्रमाणानामनुग्राहकस्तावज्ज्ञानाय परिकल्प्यते ॥"
अर्थात् तर्क न तो स्वीकृत प्रमाणों में समाविष्ट किया जाता है और न वह पृथकू प्रमाण ही है किन्तु वह एक ऐसा व्यापार है जो प्रमाणों के सत्य ज्ञान को निर्धारित करने में सहा यता देता है । विश्वनाथ कहते हैं कि तर्क हेतु के व्यभिचार के सम्भाव्य उदाहरणों के सम्बं न्ध में संशय का निवारण करता है और इस प्रकार व्याप्ति ज्ञान को अचूक बना देता है अर्थात् परोक्ष रूप से व्याप्ति ग्रहण में सहायक होता है । इस प्रकार लगभग सभी न्यायदार्शनिकं व्याप्ति ग्रहण में तर्क की उपयोगिता को स्वीकार करते हैं ।
न्याय सूत्र के भाष्य में वात्स्यायन" तर्क के स्वरूप को स्पष्ट करते लिखते है कि जिस वस्तु का यथार्थ स्वरूप ज्ञात नहीं है उस विषय को यथार्थतः जानने के लिए स्वाभाविक रूप से जो इच्छा उत्पन्न होती है उसे जिज्ञासा कहा जाता है, विज्ञासा के पश्चात् यह विचार उठता है कि इसका कारण यह है या वह ? इस प्रकार यहां परस्पर भिन्न दो कोटियां उपस्थित हो जाती हैं, इन दो कोटियों में कौन सी ठीक है यह संशय या विमर्श है ? दोनों कोटियों में से यथार्थ कोटि को जानने के लिए एवं उक्त संशय से मुक्ति पाने के लिए उन संदिग्ध पक्षों में जिस ओर भी कारण की उपपत्ति दृष्टिगोचर होती है उसी सम्भावना को तर्क कहा जाता है, अतः तार्किक ज्ञान निर्णयात्मक 'यह ऐसा ही है' इस प्रकार का न होकर 'इसे ऐसा होना चाहिए' या 'यह ऐसा हो सकता है' इस प्रकार का होता है । अतः तर्क एक सम्भावनामूलक ज्ञान है। उदयन का कथन है कि 'एव' शब्दार्थ अर्थात् 'यह ऐसा हो है' को विषय करती हुई किन्तु 'एव' शब्द से विहीन कारण की उत्पत्ति द्वारा एक पक्ष का बोधन करती हुई संशय तथा निर्णय के मध्य में होने वाली सम्भावनामूलक प्रतीति तर्क कहलाती है ।' न्याय दर्शन में तर्क संशय और निर्णय के बीच दोलन की अवस्था हैं। यद्यपि वह निर्णयाभिमुख अवश्य होती है । संशय में प्रतीति उभय पक्ष अवगाहिनी होती है ' जैसे यह स्तम्भ है या पुरुष' । जबकि निर्णय में वह निश्चित रूप से एक ही पक्ष को ग्रहण करती है। जैसे 'वह पुरुष ही है।' तर्क में वह निर्णयोन्मुख तो होती है किन्तु कि नहीं जैसे 'यह पुरुष होगा या यह पुरुष हो सकता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि तर्क शब्द को न्याय दर्शन जिस अर्थ में ग्रहण करता है वह उसके जैन दर्शन में यहीत अर्थ से भिन्न है । वस्तुतः न्याय दर्शन के तर्क का स्वरूप जैन दर्शन के हा शब्द के समा है । जैन दार्शनिकों ने ईहा शब्द की जो व्याख्या प्रस्तुत की है वह भी ठीक ऐसी ही है । प्रमाणनयतत्वालोक में ईहा की परिभाषा निम्न प्रकार दो गई है - 'अत्रगृहीतार्थ विशेष कांक्षण
१०- न्याय सूत्र पर वात्स्यायन भाष्य १।१।१ । पृष्ठ ५३ न्यायसून पर विश्वनाथ वृत्ति, १९३४०
न्यायसूत्र पर वारस्यायन भाष्य, पृष्ठ ३२०-२१
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