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सागरमल जैन
मीहा' (२१८) अर्थात् अवग्रह में जिस विषय का ज्ञान होता हैं उसका ही विशिष्ट ज्ञान' प्राप्त करना ईहा है। मान लीजिये कि मुझे कोई शब्द सुनाई दिया है-वह अवग्रह है किन्तु शब्द सुनने पर हम यह सोचते हैं कि वह किसका शब्द है, पुरुष का या स्त्री का ? यह संशय है-इस संशय से हम उस स्वर की विभिन्न स्वरों से तुलना करते हैं और यह पाते हैं कि यह स्वर पुरुष का नहीं हो सकता, क्योंकि इसमें माधुर्य है, अतः इसे स्त्री का स्वर होना चाहिए । संशय में दोनों पलडे बराबर रहते हैं किन्तु ईहा में अन्य साधक प्रमाणों के कारण ज्ञान का झुकाव उस ओर हो जाता है, जिसका निश्चय हम अवाय (निर्णय) में करते हैं । अतः यदि हम अबाय को निर्णय कहें तो ईहा निर्णय की पूर्वावस्था होगी । चूंकि जैन दर्शन की ईहा और न्याय दर्शन का तर्क दोनों निर्णय के पूर्व की अवस्था है अतः दोनों समान है। दोनों में ही ज्ञान का स्वरूप निणायक न होकर निर्णयोन्मुख ही होता है । ऐसा लगता है कि प्रमाण युग के पूर्व तक जैन दार्शनिक भी तर्क के निश्चयात्मक स्वरूप की स्थापना नहीं कर पाये थे । उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य में ईहा के . पर्यायवाची शब्दों में ऊह और तर्क दोनों का प्रयोग किया है। इससे हम सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि प्रमाण युग के पूर्व तक न्याय दर्शन के तर्क और जैन दर्शन के ईहा के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं था । सम्भवतः यह प्रश्न तब उपस्थित हुआ होगा जबकि व्याप्ति के ग्रहण की समस्या उपस्थित हुई होगी। व्याप्ति का ग्रहण केवल निश्चयात्मक ज्ञान से ही सम्भव था । और इसलिए जहाँ जैन दार्शनिकों को ईहा से स्वतंत्र तर्क की प्रमाण के रूप में स्थापना करनी पडी, वहीं न्याय दार्शनिकों को सामान्यलक्षणा प्रत्यासत्ति के रूप में प्रत्यक्ष के ही एक नवीन प्रकार की कल्पना करनी पड़ी । जिस पर हम आगे चर्चा करेंगे। : वात्स्यायन ने तर्क की जो परिभाषा प्रस्तुत की थी और जैन दार्शनिकों ने ईहा का जो स्वरूप स्पष्ट किया था, वह पाश्चात्य आगमनात्मक तर्क शास्त्र में स्वीकृत परिकल्पमा (Hypothesis) के समान है।
जैन दर्शन की ईहा, न्याय दर्शन का तर्क और पाश्चात्य आगमनात्मक तर्कशास्त्र की प्राक्कल्पना-तीनों ही निर्णयाभिमुख एवं निर्णय के सम्बन्ध में सुझाव देने वाली निर्णय के पूर्व की अवस्थायें हैं और इस रूप में तीनों में समानता परिलक्षित होती है। पाश्चात्य तर्क शास्त्रियों ने वैज्ञानिक प्राक्कल्पना की व्याख्या भी इसी रूप में की है। प्राक्कल्पना वह कल्पना है जिसके सत्य होने की सर्वाधिक सम्भावना होती है। यह बात प्राक्कल्पना के एक उदाहरण से स्पष्ट हो जाती है। मान लीजिये हम किसी जिले में अधिक चोरियां होने की घटना की व्याख्या करना चाहते है । हम सोचते है कि यदि इस जिले में अधिक चोरियां होती है तो या तो वहां के निवासी आपराधिक प्रवृत्ति के है, या यहां की पुलिस सजग नहीं है या लोगों में गरीबी बढ़ गई है। हम यह पाते हैं कि यहां के लोग आपराधिक प्रवृत्ति के नहीं है अन्यथा पूर्व वर्षों में भी चोरियां अधिक होनी थी किन्तु ऐसी बात नहीं है। अतः यह विकरूप निरस्त हो जाता है। दूसरा विकल्प पुलिस सजग नहीं इसलिए निरस्त हो जाता है कि चोरी के लगभग सभी केस पकडे जा रहे हैं अत: हम इस निश्चय की और अभिमुख होते है कि सम्भावना यही हो सकती है कि यहां के लोगों में गरीबी बढ़ी होना चाहिये । यही सम्भावित कारण की कल्पना प्राक्कल्पना है। प्रतीकात्मक दृष्टि से इन्हें इस प्रकार रखा जा सकता है
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