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________________ सागरमल जैन निरूपणमूह: न्यायमंजरी; पृ० ५८८) । पतंजलि ने भी व्याकरण शास्त्र के प्रयोजन हेतु ऊह की प्रमाणता को स्वीकार किया है । क्योंकि वेदादि में सभी लिंगों और विभक्तियों में मन्त्रों का कथन नहीं हुआ है अतः देवता द्रव्य का ध्यान रख कर उनमें परिणमन कर लेना चाहिए (महाभाष्य ११११)। यहां ऊह भाषायी विवेक और भाषायी नियमों के पालन से अधिक को नहीं है। भाषीय नियमों के आधारपर स्वरूप एवं अर्थ निर्धारित करने की प्रक्रिया वस्तुतः अनुमान का ही एक रूप है, अतः तर्क अनुमान के ही अन्तर्गत है; उसका स्वतंत्र स्थान नही है। इस प्रकार इन दोनों दर्शनों में तर्क का प्रसंग ज्ञान मीमांसीय न हो कर भाषाशास्त्रीय ही है। मीमांसा दर्शन में भी तर्क की प्रमाणता को स्वीकार किया गया है किन्तु उसका सन्दर्भ भी प्रमाण मीमांसा का न होकर विशुद्ध रूप से कर्मकाण्ड सम्बन्धी भाषा का ही है। मीमांसा कोष में ऊह के स्वरूप के सम्बन्ध में लिखा है -'अन्यथा श्रुतस्य शब्दस्य अन्यथा लिंगवचनादिभेदेन विपरिणमनम् ऊहः ।' अर्थात् मन्त्र आदि में दिये गये मूल पाठ में विनियोग के अनुसार लिंग वचन आदि में परिवर्तन करना ऊह कहा जाता है । मीमांसा शास्त्र के सम्पूर्ण नवम अध्याय के चार पादों के २२४ सूत्रों में ऊह पर विस्तार से विचार किया मैंया है किन्तु सारा प्रसंग कर्मकाण्डीय भाषा शास्त्र का ही है। उसमें तीन प्रकार के ऊह मामे गये हैं- १ मन्त्र-विषयक ऊह, २-साम विषयक ऊह और ३-संस्कार विषयक ऊह । किन्तु तीनों के सन्दर्भ कर्मकाण्डीय भाषा से सम्बन्धित है। भाट्ट-दीपिकाकार का कथन है कि प्रकृति याग (अर्थात् जिसके लिए वह मंत्र रचा गया है) में पठित मंत्र का विकृति याग में उसके अनुरूप परिवर्तन कर लेना ही ऊह है। उदाहरण के लिए यज्ञ कर्म में जहाँ ब्रीहि (यावल) द्रव्य है वहां अवहनन व्रीहि में किया जाता है । यही यज्ञ कर्म अगर नीवार (जंगली चावल) से किया जावे तो अवहनन नीवार में सम्पन्न होगा, यह द्रव्य विषयक ऊह है। इसी प्रकार अग्नि देवता के लिए चरु निर्वपन करते समय 'अग्नये त्वा जुष्टं निर्वपामि' मन्त्र का प्रयोग प्रकृत है किन्तु जब अग्नि के स्थान पर सूर्य देवता के लिये चरु निर्वपन करना हो तो चतुर्थी विभक्त्यन्त सूर्य शब्द का प्रयोग करते हुए 'सूर्याय त्वा जुष्ट निर्वामि' मन्त्र को प्रयोग होता है । यह मन्त्र श्रति में पठित नहीं है किन्तु ऊह-सिद्ध है । संक्षेप में यज्ञ एवं संस्कार आदि को सम्पन्न करते समय देवता, द्रव्य, यजमान आदि का ध्यान रखते हुए परिस्थिति के अनुरूप मंत्रों के शब्दों तथा लिंग, वचन एवं विभक्ति आदि में परिवर्तन कर लेना ऊह या तर्क है । इस प्रकार मीमांसा दर्शन में ऊह या तर्क का अर्थ कर्मकाण्डीय भाषा के विवेक से अधिक कुछ नहीं है। संक्षेप में उपर्युक्त तीनों दर्शनों में तर्क का कार्य या तो व्याकरण सम्बन्धी नियमों का ध्यान रखने शब्द एवं वाक्य के अर्थ का निर्धारण करना है या यज्ञ-याग आदि कर्मों को सम्पन्न करते भाषायी-विवेक का उपयोग है, चाहे इन दर्शनों ने तर्क की प्रमाणता को स्वीकार किया हो किन्तु न तो वे उसे स्वतंत्र प्रमाण मानते हैं और न व्याप्ति ग्रहण में उसके मोदान को ही स्वाकार करते हैं । ६. भारतीयदर्शन का इतिहास भाग ४, पृ. १९०-१९१ - मीमांसा कोष, पृष्ट १६३८ ८-तत्रोहो नाम प्रकृतावन्यथा दृष्टस्य विकृतावन्यथा भावः । ९- मीमांसा दर्शन ९-२, १-१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520757
Book TitleSambodhi 1978 Vol 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages358
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size9 MB
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