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जैनदर्शन में तर्कप्रमाण Logic pp 123-125) वस्तुतः तर्क को अन्तर्बोधात्मक या अन्तःप्रज्ञात्मक प्रातिभ ज्ञान कहना इसलिए. आवश्यक है कि उसकी प्रकृति इन्द्रियानुभवात्मक ज्ञान अर्थात् लौकिक प्रत्यक्ष (Empirical knowledge or perception) से और बौद्धिक निगमनात्मक अनुमान ( Deductive inference ) दोनों से भिन्न है। तर्क अतीन्द्रिय ( Non-empirical) और अति-बौद्धिक ( Super rational) है, क्योंकि वह अतीन्द्रिय एवं अमूर्त. सम्बन्धों ( Non-empirical relations ) को अपने ज्ञान का विषय बनाता है। उसका विषय है-जाति-उपजाति सम्बन्ध, सामान्य-विशेष सम्बन्ध, कार्यकारण सम्बन्ध आदि । वह आपादन (Implication), अनुवर्तिता ( Entailment), वर्ग सदस्यता (Class. membership ), कार्यकारणता (Causaltiy) और सामान्यता ((Universaltiy) का ज्ञान है । वह. वस्तुओं को ही नहीं, अपितु उनके तात्त्विक स्वरूप एवं सम्बन्धों को भी जानता है, इसलिए उसे आपादान का ज्ञान (Knowledge of implication) भी कहा जा सकता है। तर्क उन नियमों का द्रष्टा (यहां मैं द्रष्टा शब्द का प्रयोग जानबूझकर कर रहा हूँ) है, जिनके द्वारा विश्व की वस्तुएं परस्पर सम्बन्धित या असम्बन्धित हैं, जिनके आधार पर सामान्य वाक्यों की स्थापना कर उनसे अनुमान निकाले जाते हैं और जिन्हें पाश्चात्य आगमनात्मक तर्कशास्त्र में कार्य-कारण और प्रकृति की समरूपता के नियमों के रूप में, तथा निगमनात्मक तर्कशास्त्र में विचार के नियमों के रूपमें जाना जाता है और जो क्रमश: आगमन और निगमन की पूर्व-मान्यता के रूप में स्वीकृत है । इस प्रकार तर्क प्रमाण की विषय वस्तु तर्क शास्त्र की अधिमान्यतायें (postulates of Logic and Reasoning) है, वह प्रत्यक्ष और अनुमान से तथा आगमन और निगमन से विलक्षण है । वह सम्पूर्ण तर्क शास्त्र का आधार है, क्योंकि वह उस आपादान ( Implication) या व्याप्ति के ज्ञान को प्रदान करता है जिस पर निगमनात्मक तर्कशास्त्र टिका हुआ है और जो आगम. नात्मक तर्क शास्त्र का साध्य है । तर्क का यही विलक्षण स्वरूप एक ओर उसे प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों से भिन्न एक स्वतंत्र प्रमाण के रूप में स्थापित करता है, दूसरी ओर उसे आगमन और निगमन के बीच एक योजक कड़ी के रूप में प्रस्तुत करता है । सम्भवतः यह न्याय शास्त्र के इतिहास में जैन तार्किकों का स्याद्वाद और सप्तभंगी के सिद्धान्तों के बाद एक और मौलिक योगदान है । जैन दार्शनिकों के इस योगदान का सम्यक प्रकार से मूल्यांकन करने के लिए यह आवश्यक है कि हम विभिन्न भारतीय दर्शनों में प्रस्तुत तर्क के स्वरूप की समीक्षा करके यह देखें कि जैन दर्शन के द्वारा प्रस्तुत तर्क के स्वरूप की उनसे किस अर्थ में विशेषता है। अन्य भारतीय दर्शनों में तर्क का स्वरूप :
भारतीय दर्शनों में 'तर्क' की प्रमाणता को स्वीकार करने वालों में जैन दर्शन के साथ साथ सांख्य-योग एवं मीमांसा दर्शन का भी नाम आता है, किन्तु इन दर्शनों ने जिन प्रसंगों में तर्क की प्रमाणता को स्वीकार किया वे प्रसंग बिलकुल भिन्न हैं । सांख्य दर्शन के लिए ऊह या तर्क, वाक्यों के अर्थ निर्धारण में भाषागत नियमों के उपयोग की प्रक्रिया है। डा. सुरेन्द्रनाथ दास गुप्ता लिखते हैं 'सांख्य के लिए ऊह शब्दों अथवा वाक्यों के अर्थ को निर्धारित करने के लिए मान्य भाषागत नियमो के प्रयोग को प्रक्रिया है (युक्त्या प्रयोग
सं.७.१-४
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