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________________ सागरमल जैन __अर्थात् उपलम्भ अर्थात् यह होने पर यह होता है और अनुपलम्भ अर्थात् यह नहीं होने पर यह नहीं होता है के निमित्त से जो व्याप्ति का ज्ञान होता है वही तर्क है । दूसरे शब्दों में प्रत्यक्षादि के निमित्त से जिसके द्वारा अविनाभाव सम्बन्ध या कार्यकारण-सम्बन्ध को जान लिया गया है, वही तर्क है। यह अविनाभाव सम्बन्ध तथा कार्यकारण सम्बन्ध सार्वकालिक और सार्वलौकिक होता है, अत: इसका ग्रहण इन्द्रिय ज्ञान से नहीं होता है अपितु अतीन्द्रिय प्रज्ञा से होता है, अतः तर्क ऐन्द्रिक ज्ञान नहीं अपितु अतीन्द्रिय प्रज्ञा है जिसे हम अन्तःप्रज्ञा या अन्तर्बोध कह सकते हैं। तर्क के इस अतीन्द्रीय स्वरूप का समर्थन प्रमाण मीमांसा की स्वोपज्ञ वृत्ति में स्वयं हेमचन्द्र ने किया है। वे कहते हैं 'व्याप्तिग्रहणकाले योगीव प्रमाता' (२१५-वृत्ति) अर्थात् व्याप्ति ग्रहण के समय ज्ञाता योगी के समान हो पाता है। तर्क अविनाभाव को अपने ज्ञान का विषय बनाता है और यह अविनाभाव एक प्रकार का, सम्बन्ध है अतः तर्क सम्बन्धों का ज्ञान है। पुनः यह अविनाभाव सम्बन्ध सार्वकालिक एवं सार्वलौकिक होता है, अतः तक का स्वरूप सामान्य ज्ञानात्मक होता है। अविनाभाव क्या' है, और उसका तर्क से क्या सम्बन्ध है इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि . 'सहक्रमभाविनोः सहक्रमभावनियमोऽविनाभावः, ऊहात् तन्निश्चयः- (प्रमाणमीमांसा २११०११११)अर्थात् सहभावियों का सहभाव नियम और क्रमभावियों का क्रमभाव नियम ही अविनाभाव है और इसका निश्चय तर्क (ऊह) से होता है। ये सहभाव एवं क्रमभाव भी दो दो प्रकार के हैं। सहभाव के दो भेद हैं-१ सहकारी सम्बन्ध से युक्त जैसे रस और रूप : तथा २ व्याप्य-च्यापक या व्यक्तिजाति सम्बन्ध से युक्त जैसे वटत्व और वृक्षत्व । इसी प्रकार क्रमभाव के भी दो भेद हैं १-पूर्ववर्ती और परवर्ती सम्बन्ध जैसे ग्रीष्म ऋतु और वर्षा ऋतु तथा २-कार्यकारण सम्बन्ध जैसे धूम और अग्नि । इस प्रकार सहचार सम्बन्ध, पाप्य -व्यापक सम्बन्ध, व्यक्तिजाति सम्बन्ध, पूर्वापर सम्बन्ध और कार्यकारण सम्बन्ध रूप नियम अविनाभाव है और जिनका निश्चय तर्क के द्वारा होता है। इस प्रकार तर्क सम्बन्धों और सम्बन्ध-नियमों का ज्ञान है। चूंकि ये सम्बन्ध पदों के आपादन (Luplication) को सूचित करते हैं, अतः सर्क आपादन का निश्चय करता है और यह आपादन व्याप्ति की अनिवार्य शर्त है, अतः तर्क व्याप्ति का ग्राहक है, इसीलिए जैन दार्शनिकों ने कहा 'व्याप्तिज्ञानमूहः, ऊहात् तन्निश्चयः ।' अर्थात् व्याप्तिज्ञान ही तके है और तके से ही व्याप्ति (अविनाभाव आपादन) का निश्चय होता है। जैन दर्शन में तर्क प्रमाण के इन लक्षणां की पुष्टि डा. बारलिंगे ने न्याय दर्शन के तर्क स्वरूप की समीक्षा करते हुए अनजाने में ही कर दी है। उनकी विवेचना के कुछ अंश है - "Tarka is something non-empirical. Tarka is that argu. ment which goes to the roos of Anumāna and so is its presupposition or condition....It gives the relation between Apādya and Apādaka in its anvaya or vya ireka form. It is clearly the knowledge of the implication which is evidently pre-supposed by any vyāpti. Tarka indicates the relation which is presupposed by vyapti." (see : A Modern Introduction to Indian Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520757
Book TitleSambodhi 1978 Vol 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages358
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size9 MB
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