SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान महावीर का उपदेश और आधुनिक समाज चलना संभव नहीं है। परिस्थितियों को देखकर उसमें कई अपवाद करनो जरूरी हो जाता है। भूतकाल में ऐसा किया भी गया है। तो आज के जमाने में तो और भी जरूरी हो जाता है। मनुष्य को जीना है, जीना कौन नहीं चाहता । किन्तु प्रश्न है कि जीना कैसे ? भगवान महावीर का उपदेश यह स्पष्ट करता है कि मनुष्य को चाहिए कि वह त्यागी बन जाय, सर्वस्व का त्याग करे । ऐसा करने पर क्या जीवन संभव है ? आचारांग और सूत्रकृतांग के उक्त प्राचीन अंश पढें तो स्पष्ट होगा कि उसमें गृहस्थ की निन्दा ही की गई है और केवल श्रमणमार्ग की ही प्रस्थापना की है । किन्तु यह तो संभव ही नहीं था कि गृहस्थ की सहायता के बिना श्रमणों का जीवननिर्वाह चले । भगवान महावीर परम त्यागी थे फिर भी उन्हें भी भोजन तो करना ही पड़ा । परम त्यागी होने से भोजन मिला तो ठीक, न मिला तो ठेक । किन्तु सभी श्रमणों के लिए जैसी भगवान महावीर ने तपस्या की, करना संभव नहीं था। अतएंव हम देखते हैं कि उपासक संघ की व्यवस्था निर्ग्रन्थधर्म में करनी पड़ी और धर्म के दो मेद हो गये -अणगार और अगारधर्म । अर्थात् गृहस्थ और श्रमण - ऐसे दो प्रकार के धर्म प्राचीनोत्तर साहित्य में निर्दिष्ट मिलते हैं जो प्राचीन अंश में नहीं । इतने से भी काम नहीं चला । प्रथम जो गृहस्थधर्म की निन्दा ही निन्दा थी उसके स्थान में यह कहना पड़ा कि ये श्रमणोपासक - गृहस्थ श्रमणों के माता-पिता हैं । श्रमणों के लिए जो नियम बने हैं, आज प्रायः उनका पालन असंभव सा हो गया है। तो आज की आवश्यकता और मजबूरी को देखकर यह आवश्यक है कि नियमों में परिवर्तन कर दिया जाय । उदाहरण के लिए मलविसर्ग के नियम शहरों में रहने वाले श्रमणों के लिए पालना अत्यंत असंभव हैं । तो क्यों न आज के जमाने के सर्वत्र प्राप्त नाजर का उपयोग किया जाय ? गांधोजी ने जो मार्ग बताया है-खड्डा खोदकर मलविसर्ग किया जाय-वह भी तो श्रमण अपने अहिंसा के नियम के अनुसार कर नही सकता | ऐसी स्थिति में वह नियम का संपूर्ण पालन करना चाहे तो शहरों में तो श्रमण रह ही नहीं सकता । रहता तो है किन्तु अपने नियमपालनका सन्तोष जिन तरीकों से लेता है वह केवल आत्मवंचना ही है। तो क्यों ऐसे जो भी नियम आधुनिक सामाजिक व्यवस्था के साथ असंगत है उनका परिवर्तन किया न जाय ? श्रमणोपासक वर्ग के जो व्रत बताये हैं, वे प्रायः भारतीय मिश्र आर्थिक व्यवस्था के अनुकूल है। किन्तु उनकी भी आधुनिक समाज और आर्थिक व्यवस्था को ध्यान में रखकर पुर्नव्यवस्था जरूरी है । जैन समाज का उस काल में मुख्य व्यवसाय खेती था और पशुपालन उस व्यवस्था में अनिवार्य था । आज का शहरी जैन समाज उद्योगप्रधान अर्थव्यवस्था में जी रहा है और खेतीप्रधान प्राचीन नियमों के पालन का कोई प्रश्न अधिकांश जैनों के समक्ष है ही नहीं । ऐसी स्थिति में उद्योगप्रधान समाज के अनुकूल धार्मिक नियमों में परिवर्तन आवश्यक हो जाता हैं । पशुओं और दासों - नौकरों को लेकर जो नियम उस काल में बने उनका परिवर्तन उद्योग के मालिक और मजूर के आधुनिक समाज में होना आवश्यक है । श्रमणोपासकों का एक महत्व का व्रत परिग्रहपरिमाण बताया गया है । उसका पालन करने वाले विरले ही जैन हैं । भारत की समाजवादी राजनीति में यह व्रत परम आवश्यक है । उसका यदि यथोचित रूप में पालन नहीं होता है तो समाज की गति समाज Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520757
Book TitleSambodhi 1978 Vol 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages358
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy