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________________ १० - दलसुखभाई मालवणिया दर स्कंध के पांचवे अध्ययन में दी गई है जहां किन किन तत्त्वों की श्रद्धा करनी चाहिए यह बताया है-वह इस प्रकार है-लोक, अलोक, जोव, अजोव, धर्म, अधर्म, बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, आ तव, संवर, वेदना, निर्जरा, क्रिया, अक्रिया, क्रोध, मान, माया, लोभ, पेज्ज, दोस, संसार, देव, देवी, सिद्धी, असिद्धी, साधु. असाधु, कल्याण, पाप इत्यादि । स्पष्ट है यह भी सात या नव तत्व का और षड्द्रव्य का पूर्वरूप है। इस सूची में आकाश नहीं है, काल नहीं है-यह ध्यान देने की बात है। ये दो उदाहरण इस बात को स्पष्ट करते हैं कि भगवान महावीर के मौलिक उपदेश क्या थे - इसका जानना हमारी प्राथमिक आवश्यकता है। . इन्हीं प्राचीन आगमों के आधार पर ही आज के संदर्भ में भगवान महावीर के उपदेश की संगति का विचार आवश्यक है - यह दिखाने के लिए मैंने यह बाते कही है, अतएव प्रस्तुत विषय में कुछ कह देना अब उचित होगा । यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भगवान महावीर ने षड्जीवनिकाय अर्थात् जीवों के छः वर्गों का उपदेश दिया है । इस उपदेश का प्रयोजन जीवों के प्रति सद्भाव रखना था । अर्थात् आत्मौपम्य का उपदेश उन्होंने दिया कि जिस प्रकार अपने को दुःख अप्रिय है और हम सुख चाहते हैं उसी प्रकार किसी भी जीव को, दुःख प्रिय नहीं, सभी सुख चाहते हैं । अतएव किसी जीव को पीड़ा नहीं देना, किसी जीव की हिंसा नहीं करनी। उनके इस उपदेश की विशेषता यह थी कि .. किसी भी निमित्त से- विशेषकर धार्मिक निमित्त से तो किसी की हिंसा होनी ही नहीं चाहिए। हम जानते हैं कि वैदिकधर्म में यज्ञार्थ पशुओं की हत्या होती थी और खान-पान में भी मांस आदि का प्रयोग होता था । एक ओर हिंसा ही हिंसा थी तो उसका प्रतिकार भगवान महावीर ने अत्यंतिक अहिंसा के पालन से करना चाहा । उनकी जीवनचर्या का जो वर्णन है उससे पता चलता है कि उन्होंने अहिंसा का आत्यंतिक आग्रह रखा है। ये दोनों पक्ष अति है । एक ओर आत्यंतिक हिंसा और दूसरी ओर आत्यंतिक अहिंसा । व्यक्तिगतरूप से ऐसी अहिंसा का पालन भगवान् महावीर ने करना चाहा था । किन्तु प्रश्न है कि क्या यह संभव था ! और विशेषतः जब संगठित साधु का संघ हो तो क्या यह आत्यंतिक अहिंसा शक्य है ? क्या यह शक्य है कि जीवमनिर्वाह भी चले और किसी को किसी भी प्रकार की पीड़ा भी न हो १ यह स्थिति असंभव है। अतएव अहिंसा की व्याख्यो बदलनी पड़ी। जीवन में प्रमाद न हो फिर कोई चिन्ता नहीं कि कोई प्राणी अपने कारण पीड़ा प्राप्त करता हो, अथवा मृत्यु को भी प्राप्त होता हो । वैदिक उपनिषदों में जितना ज्ञान का महत्त्व था उतना महत्त्व चारित्र का नहीं था, किन्तु भगवान् महावीर ने कहा कि - " एयं खु नाणिणो सरं जं न हिंसइ किंचण । अहिंसासमय चेव एयावन्तं वियाणिया ॥" सूय. १.१ . ४ . १० उनका यह उपदेश आज भी उतना आवश्यक है जितना उस काल में था । किन्तु एक बात का उसमें संशोधन जरूरी है कि आत्यंतिक अहिंसा की बात इस काल में चल नहीं सकती है। उस काल में भी नहीं चली तो आज दुनिया जब इतनी छोटी होतो गयी है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520757
Book TitleSambodhi 1978 Vol 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages358
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size9 MB
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