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________________ भगवान महावीर का उपदेश और आधुनिक समाज हम यदि भगवान महावीर के विचारों की संगति आज के संदर्भ में देखना चाहें तो प्राचीनतम साहित्य का ही सहारा लें । अन्यथा किसी अन्य के विचार भगवान् महावीर के विचार के रूप में उपस्थित करने की भूल हम करेंगे जो उचित नहीं। विदेशी विद्वानों के मन्तब्यानुसार आचारांगसूत्र का प्रथम श्रस्कन्ध और सूत्रकृतांग सूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राचीनतम ठहरते हैं, किन्तु उनमें भी व्यक्त किये गये सभी विचार भगवान् महावीर के ही हैं यह भी हम नहीं कह सकते । सूत्रकृतांग में की गई भगवान् महावीर की स्तुति और आचारांग मे ग्रथित भगवान् महावीर की तपस्या का वर्णन सष्ट रूप से भगवान् महावीर प्ररूपित हो नहीं सकता । अतएव तथाकथित प्राचीनतम साहित्य में भी भगवान् महावीर के ही विचारों का ही संकलन है यह हम नहीं कह सकते । अतएव यहां भी विवेक करना जरूरी है । आपके समक्ष एक दो उदाहरण देकर मेरे मन्तव्य को मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ। सामान्यत: जहाँ भी भगवान महावीर के तत्त्व-संबन्धी विचारों की चर्चा होती है वहाँ यह कहा जाता है कि भगवान् महावीर ने पंचास्तिकाय या षड्द्रव्य की प्ररूपणा की। देखना यह है कि क्या यह मान्यता सच है ? मेरे विचार से यह मान्यता सच नहीं है। आचारांग और सूत्रकृतांग के उक्त प्राचीन अंशों में कहीं भी इसका जिक्र नहीं । अन्य मतावलंबी के पंचभूत और पंचस्कन्धों की मान्यता उचित नहीं- यह तो सूत्रकृतांग में कहा किन्तु उसके स्थान में अपनी पंचास्तिकायकी या षड्द्रव्य की मान्यता को उपस्थित नहीं किया। स्पष्ट है कि इस विषय में उनके विचार अभी स्थिर नहीं हुए थे। इस विषय में एक और प्रमाण भगवती-सूत्र से भी मिलता है। भगवती-सूत्र में काल-दृष्टि से अनेक स्तर हैं और उसके प्राचीन स्तर में एक प्रश्न भगवान महावीर से पूछा गया है-"क्या कोई ऋद्धि संपन्न देव लोक के अंत में खड़ा रह कर अलोक में हाथ हिला सकता है ?' उसके उत्तर में भगवान कहते है- 'णो इणदठे समठे.... गोयमा ! जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला बौदिचिया पोग्गला कलेवरचिया पोग्गला; पोग्गलामेव पप्प जीवाण य अजीवाण य गइपरियाए आहिज्जई' भ० १६-८-५८५ (सुत्तागमे) । यदि धर्मास्तिकाय जो गति-सहायक द्रव्य माना गया है, उसकी कल्पना स्थिर हुई होती तो क्या भगवान महावीर का यह उत्तर संभव था ? स्पष्ट है कि धर्मास्तिकाय और अधर्मास्ति काय की जनदर्शन में कल्पना बाद में आई है। भगवती में ही अन्यत्र लेक की व्याख्या में पंचास्तिकाय का विस्तृत विवरण मिलता है। फिर भी ऐसा उत्तर क्यों ? स्पष्ट है कि भगवती में कई स्तर हैं- प्राचीन और उत्तरकालीन । जैनागमों के संकलनकर्ताओं को धन्यवाद देना चाहिए कि उन्होंने ऐसे प्राचीन अंशों को जो बाद की स्थिर मान्यता के विरुद्ध जाते हैं. निकाला नहीं। इसी कारण से जैनधर्म या दर्शन के विचारों के विकास को समझने के लिए जैनागमों का अध्यान अत्यन्त जरूरी है। एक और उदाहरण देता हूं- जैनदर्शन में श्रद्धा के विषयभूत सात और नवतत्त्व की चर्चा आती है, प्रश्न है कि क्या भगवान् महावीर ने ही इन तत्त्वों की इस रूप में व्यवस्था की थी? सूत्रकृतांग के प्र० श्रु० अ० १२ में जो धर्म के उपदेशक है उन्हें क्या जानना चाहिए-इसकी एक सूची दी है- (गाथा २०-२१) उससे फलित होता है कि- आत्मा. लोक. जीवों की गति-आगति, शाश्वत-अशाश्वत, जन्म-मरण-उपपात, विउट्टण, आस्रव, संवर, दुःख और निर्जरा इनका ज्ञान- जरूरी है । एक और सूची सूत्रकृतांग के ही दूसरे भुत. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520757
Book TitleSambodhi 1978 Vol 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages358
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size9 MB
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