SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१ समाधिमरण विसर्जन किया जाता है । साधक प्रतिज्ञा करता है कि में पूर्णतः हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ यावत् मिथ्यादर्शन शल्य से विरत होता हूँ, अन्न आदि चारों प्रकार के आहार का यावज्जीवन के लिए त्याग करता हूं । मेरा यह शरीर जो मुझे अत्यन्त प्रिय था, मैने इसकी बहुत रक्षा की थी, कृपण के धन के समान इसे सम्भालता रहा था, इस पर मेरा पूर्ण विश्वास था (कि यह मुझे कभी नहीं छोड़ेगा), इसके समान मुझे अन्य कोई प्रिय नहीं था, इसलिए मैंने इसे शीत, गर्मी, क्षुधा, तृष्णा आदि अनेक कष्टों से एवं विविध रोगों से बचाया और सावधानीपूर्वक इसकी रक्षा करता रहा था, अब मैं इस देह का विसर्जन करता हूं और इसके पोषण एवं रक्षण के प्रयासों का परित्याग करता हूं। बौद्ध परम्परा में मृत्यु : यद्यपि बुद्ध ने जैन परम्परा के समान ही धार्मिक आत्महत्याओं को अनुचित माना है, तथापि बौद्ध साहित्य में कुछ ऐसे सन्दर्भ अवश्य हैं जो स्वेच्छापूर्वक मृत्यु-वरण का समर्थन करते है। संयुक्तनिकाय में असाध्य रोग से पीड़ित भिक्षु वक्कलि कुलपुत्र तथा भिक्षु छन्न द्वारा की गई आत्महत्याओं का समर्थन स्वयं बुद्ध ने किया था और उन्हें निर्दोष कह कर दोनों ही भिक्षुओं को परिनिर्वाण प्राप्त करने वाला बताया था । जापानी बौद्धों में तो आज भी हरीकरी की प्रथा मृत्यु-वरण की सूचक है । फिर भी जैन परम्परा और बौद्ध परम्परा में मृत्युवरण के प्रश्न को लेकर कुछ अन्तर भी है । प्रथम तो यह कि जैन परम्परा के विपरीत बौद्ध परम्परा में शस्त्रवध से तत्काल ही मृत्यु-वरण कर लिया जाता है । जैन आचार्यों ने शस्त्रवध के द्वारा तात्कालिक मृत्यु वरण का विरोध इसलिए किया था कि उन्हें उसमें मरणाकांक्षा की सम्भावना प्रतीत हुई । उनके अनुसार यदि मरणाकांक्षा नहीं है तो फिर मरण के लिए उतनी आतुरता क्यों ! इस प्रकार जहां बौद्ध परम्परा शस्त्रवध के द्वारा की गई आत्महत्या का समर्थन करती हैं, वहां जैन परम्परा उसे अस्वीकार करती है । इस सन्दर्भ में बौद्ध परम्परा वैदिक परम्परा के अधिक निकट है। वैदिक परम्परा में मृत्यु-वरण : सामान्यतया हिन्दू धर्मशास्त्रों में आत्महत्या को महापाप माना गया है । पाराशरस्मृति में कहा गया है कि जो क्लेश, भय, घमण्ड' और क्रोध के वशीभूत होकर आत्महत्या करता है, वह साठ हजार वर्ष तक नरकवास करता है। महाभारत के आदि पर्व के अनुसार भी आत्महत्या करने वाला कल्याणप्रद लोकों में भी नहीं जा सकता है"। लेकिन इनके अतिरिक्त हिन्दू धर्मशास्त्रों में ऐसे भी अनेक सन्दर्भ है जो स्वेच्छापूर्वक्र मृत्युवरणका समर्थन करते हैं । प्रायश्चित्त के निमित्त से मृत्युवरण का समर्थन मनुस्मृति (११।९०-९१), याज्ञवल्क्यस्मृति (३१२५३', गोतमस्मृति (२३।१), वशिष्ठधर्मसूत्र (२०१२२, १३।१४) और आपस्तंबसूत्र (१।९।२५।१-३, ६) में भी किया गया है । मात्र इतना ही नहीं, हिन्दू धर्मशास्त्रों में ऐसे भी अनेक स्थल है, जहां मृत्युवरण को पवित्र एवं धार्मिक आचरण के रूप में देखा गया है। महाभारत के अनुशासनपर्व (२५।६२-६४), वनपर्व (८५४८३) एवं मत्स्यपुराण (१८६।३४।३५) में अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, गिरिपतन, विषप्रयोग या उपवास आदि के द्वारा देह त्याग करने पर ब्रह्म लोक या मुक्ति प्राप्त होती है ऐसा माना गया है। अपरार्क ने प्राचीन आचार्यों के मत को उद्धृत करते हुए लिखा
SR No.520756
Book TitleSambodhi 1977 Vol 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages420
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy