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सागरमल जन
सागारी संथारा : जब अकस्मात् कोई ऐसी विपत्ति उपस्थित हो कि जिसमें से जीवित बच निकल ना सम्भव प्रतीत न हो, जैसे आग में गिर जाना. जल में डूबने जैसी स्थिति हो जाना अथवा हिंसक पशु या किसी ऐसे दुष्ट व्यक्ति के अधिकार में फस जाना जहां सदाचार से पतित होने की सम्भावना हो, ऐसे संकटपूर्ण अवसरों पर जो संथारा ग्रहण किया जाता है, वह सागारी संथाग कहा जाता है । यदि व्यक्ति उस विपत्ति या संकटपूर्ण स्थिति से बाहर हो जाता है तो वह पुनः देहरक्षण के तथा सामान्य क्रम को चाल रख सकता है । संक्षेप में अकस्मात मृत्यु का अवसर उपस्थित हो जाने पर जो संथाग ग्रहण किया जाता है. वह सागारी संथाग मृत्यु पर्युन्त के लिए नहीं, वरन् परिस्थिति विशेष के लिए होता है अतः उस परिस्थिति विशेष के समाप्त हो जाने पर उस व्रत की मर्यादा भी समाप्त हो जाती है।
। सामान्य संथारा : जब स्वाभाविक जरावस्था अथवा असाध्य रोग के कारण पुनः स्वस्थ होकर जीवित रहने की समस्त आशाएं धूमिल हो गयी हो, तब पावजावन तक जो देहासक्ति एवं शरीर-पोषण के प्रयत्नों का त्याग किया जाता है और जो देहपात पर ही पूर्ण होता है वह सामान्य संथारा है । सामान्य संथारा ग्रहण करने के लिए जैनागमों में निम्न स्थितियां आवश्यक मानी गयी है -
जब शरीर की सभी इन्द्रियां अपने अपने कार्यों के सम्पादन करने में अयोग्य हो गयी हों, जब शरीर का मांस एवं शोणित सूख जाने से शरीर अस्थार मान रह गया हो, पचन-पाचन, आहार-निहार आदि शारीरिक क्रिया शिथेट हो गयी हो और इनके कारण साधना और संयम का परिपालन सम्यक् रीति से होगा सम्भव नहीं हो, इस प्रकार मृत्यु को जीवन की देहली पर उपस्थित हो जाने पर ही सामान्य मांथा ग्रहण किया जा सकता है। सामान्य संथारा तीन प्रकार का होता है
(अ) भक्त प्रत्याख्यान - आहार आदि का त्याग करना । (ब) इंगितमरण - एक निश्चित भू-भाग पर हलन-बलम आदि शारीरिक क्रियाएं
करते हुए आहार आदि का त्याग कर देना । (स) पादोपगमन - आहार आदि के त्याग के साथ साथ शारीरिक क्रियाओं का
निरोध करते हुए मृत्युपर्यन्त निश्चल रूप में लकड़ी के तरखने के समान स्थिर
पड़े रहना। । उपरोक्त सभी प्रकार के समाधि-मरणों में मन का समभाव में स्थित होना अनिवार्य माना गया है। समाधि-मरण ग्रहण करने की विधिः
. जैनागमों में समाधि-मरण ग्रहण करने की विधि निम्नानुसार बताई गई है-सर्वप्रथम मलमूत्रादि अशुचि विसर्जन के स्थान का अवलोकन कर नरम तृगों की शय्या तैयार कर ली जाती है । तत्पश्चात् अरिहन्त, सिद्ध और धर्माचार्यों को विनयपूर्वक नमस्कार कर पूर्वग्रहीत प्रतिज्ञाओं में लगे हुए दोषों की आलोचना और उनका प्रायश्चित ग्रहण किया जाता हैं। इसके बाद समस्त प्राणियों से क्षमा-याचना की जानी है और अन्त में अठारह पापस्थानों, अन्नादि चतुर्विध आहारों का पाग करके शरीर के ममत्व एवं पोषणक्रिया का.