SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 337
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाधि-मरण (मृत्यु-वरण) : एक तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक अध्ययन * सागरमल जैन जैन परम्परा के सामान्य आचार नियमों में संलेखना या संथारा (मृत्यु-वरण) एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है । जैन गृहस्थ उपासकों एवं श्रमण साधकों दोनों के लिए स्वेच्छापूर्वक मृत्युः वरण का विधान जैन आगों में उपलब्ध है। जैनागम साहित्य ऐसे साधकों की जीवन गाथाओं से भरा पड़ा है जिन्होंने समाधि-मरण का व्रत ग्रहण किया था । अन्तकृतदशांग एवं अनुत्तरोपपातिक सूत्रों में उन श्रमण साधकों का और उपासकदशांग सूत्र में आनन्द आदि उन गृहस्थ साधकों का जीवन दर्शन उपलब्ध है, जिन्होंने अपने जीवन को संध्या वेला में समाधिमरण का व्रत लिया था उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार मृत्यु के दो रूप हैं- १- समाधिमरण या निर्भयतापूर्वक मृत्यु-वरण और २- भयपूर्वक मृत्यु से ग्रसित हो जाना' । समाधिमरण में मनुष्य का मृत्यु पर शासन होता है, जबकि अनिच्छापूर्वक मरण में मृत्यु मनुष्य पर शासन करता है। पहले को पण्डित-मरण कहा गया है जबकि दूसरे को बाल(अज्ञानी)-मरण कहा गया है। एक ज्ञानीजन की मौत है और दूसरी अज्ञानी की । अज्ञानो विषयासक्त होता है और इसलिए वह मृत्यु से डरता है, जबकि सच्चा ज्ञानी अनासक्त होता है और इसलिए वह मृत्यु से नहीं डरता है। जो मृत्यु से भय खाता है उससे बचने के लिए भागा भागा फिरता है, मृत्यु भी उसका सदैव पीछा करती रहती है, लेकिन जो निर्भय हो मृत्यु का स्वागत करता है और उसे आलिंगन दे देता है, मृत्यु उसके लिये निरर्थक हो जाती है। जो मृत्यु से भय खाता है, वही मृत्यु का शिकार होता है, लेकिन जो मृत्यु से निर्भय हो जाता है वह अमरता की दिशा में आगे बढ़ जाता है। साधकों के प्रति महावीर का सन्देश यही था के मृत्यु के उपस्थित होने पर शरीरादि से अनासक्त होकर उसे आलिंगन दे दो । महावीर के दर्शन में अनासक्त जीवनशैली की यही महत्त्वपूर्ण कसौटी है, जो साधक मृत्यु से भागता है, वह सच्चे अर्थ में अनासक्त जीवन जीने की कला से अनभिज्ञ है । जिसे अना. सक्त मृत्यु की कला नहीं आती उसे अनासक्त जीवन की कला भो नहीं आ सकती। इसी अनासक्त मृत्यु की कला को महावीर ने संलेखना व्रत कहा है । जन परम्पग में संथारा, संलेखना, समाधि-मरण, पण्डित-मरण ओर सकाम मरण * आदि निष्काम मृत्यु-वरण के ही पर्यायवाची नाम हैं । आचार्य समन्तभद्र संलेखना की परिभाषा करते हुए लिखते हैं कि आपत्तियों, अफालों, अतिवृद्धावस्था एवं असाध्य रोगोंमें शरीर त्याग करने को संलेखना कहते हैं। अर्थात् जिन स्थितियों में मृत्यु अनिवार्य सी हो गई हो उन परिस्थियों में मृत्यु के भय से निर्भय होकर देहासक्ति का विसर्जन कर मृत्यु का स्वागत करना ही संलेखना व्रत है । समाधि-मरण के भेद : - जैनागम ग्रन्थों में मृत्यु-वरण के अवसरों की अपेक्षा के आधार पर समाधि-मरण के दो प्रकार माने गये हैं - १- सागारी संथारा, और २- सामान्य संथारा । * पूना वि. वि. में जैन दर्शन सम्बन्धी संगोष्ठी (जनवरी ७७) में पठित निबन्ध : . * यहाँ समाम का अर्थ सार्थक है, कामना युक्त नहीं ।
SR No.520756
Book TitleSambodhi 1977 Vol 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages420
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy