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सागरमल जैन
है कि यदि कोई गृहस्थ असाध्य रोग से पीड़ीत हो, जिसने अपने कर्तव्य कर लिए हों, वह महास्थान, अग्नि या जल में प्रवेश करने अथवा पर्वतशिखर से गिरकर अपने प्राणों की हत्या कर सकता है। ऐसा करके वह कोई पाप नहीं करता। उसकी मृत्यु तो तपों से भी बढ़कर हैं । शास्त्रानुमोदित कर्तव्यों के पालन में अशक्त होने पर जीवन जीने की इच्छा रखना व्यर्थ है१२ । श्रीमद्भागवत के ११ वें स्कन्ध के १८ वें अध्याय में भी स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण को स्वीकार किया गया है। वैदिक परम्परा में स्वेच्छा मृत्यु-वरण का समर्थन न केवल शास्त्रीय आधारों पर हुआ है वरन् व्यावहारिक जीवन में इसके अनेक उदाहरण भी परम्परा में उपलब्ध है । महाभारत में पाण्डवों के द्वारा हिमालय-यात्रा में किया गया देहपात मृत्यु-वरण का एक प्रमुख उदाहरण है । डा० पाण्डुरंग वामन काणे ने वाल्मीकी रामायण एवं अन्य वैदिक धर्मग्रन्थों तथा शिलालेखों के आधार पर शरभंग, महाराजा रघ, कलचुरी के राजा गांगेय, चंदेल कुल के राजा गंगदेव, चालुक्य राज सोमेश्वर आदि के स्वेच्छा मृत्यु-वरण का उल्लेख किया है। मैगस्थनीज ने भी ईश्वी पूर्व चतुर्थ शताब्दी में प्रचलित स्वेच्छामरण का उल्लेख किया है। प्रयाग में अक्षयवट से कूद कर गंगा में प्राणान्त करने की प्रथा तथा काशी में करवत लेने की प्रथा वैदिक परम्परा में मध्य युग तक भी काफी प्रचलित थी । यद्यपि ये प्रथाएं आज नामशेष हो गयी हैं फिर भी वैदिक संन्यासियों द्वारा जीवित समाधि लेने की प्रथा आज भी जनमानस की श्रद्धा का केन्द्र है।
इस प्रकार हम देखते है कि न केवल जैन और बौद्ध परम्पराओं में, वरन् वैदिक परम्परा में भी मृत्यु-वरण को समर्थन दिया गया है । लेकिन जैन और वैदिक परम्पराओं में प्रमुख अंतर यह है कि जहां वैदिक परम्परा में जल एवं अग्नि से प्रवेश, गिरि-शिखर से गिरना, विष या शस्त्र प्रयोग आदि विविध साधनों से मृत्यु वरण का विधान मिलता है, वहां जैन परम्परा में सामान्यतया केवल उपवास द्वारा ही देहत्याग का समर्थन मिलता है । जैन परम्परा शस्त्र आदि से होने वाली तात्कालिक मृत्यु की अपेक्षा उपवास द्वारा होने वाली क्रमिक मृत्यु को ही अधिक प्रशस्त मानती है । यद्यपि ब्रह्मचर्य की रक्षा आदि कुछ प्रसंगों में तात्कालिक मृत्यु-वरण को स्वीकार किया गया है, तथापि सामान्यतया जैन आचार्यों ने तात्कालिक मृत्यु-वरण जिसे प्रकारान्तर से आत्महत्या भी कहा जा सकता है, की आलोचना की है। आचार्य समन्तभद्र ने गिरिपतन या अग्निप्रवेश के द्वारा किये जाने वाले मृत्यु-वरण को लोकमूढ़ता कहा है"। जैन आचार्यों की दृष्टि में समाधि-मरण का अर्थ मृत्यु की कामना नहीं, वरन् देहासक्ति का परित्याग है । उनके अनुसार तो जिसप्रकार जीवन की आकांक्षा दूषित मानी गई है, उसी प्रकार मृत्यु की आकांक्षा को भी दूषित मानी गयी है। समाधि-मरण के दोषः जैन आचार्यों ने समाधि-मरण के लिए निम्न पांच दोषों से बचने का निर्देश किया है
१- जीवन की आंकाक्षा २- मृत्यु की आकांक्षा ३- ऐहिक सुखों की कामना ४- पारलौकिक सुखों की कामना और ५- इन्द्रियों के विषयों के भोग की आकांक्षा ।