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________________ ... प्रेम सुमन जैन जुण्णठक्कुर को कथा से यह स्पष्ट है कि राजा द्वारा सैनिकों को जमीन दान में दी जाती थी तथा. वे राजा के अधीन होकर वहाँ का शासन करते थे । उन्हें राजा के दरबार में प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त था। कुवलय० में इस सम्बन्ध में एक विशेष शब्द 'ओलग्गिउं' का प्रयोग हुआ है।' इस शब्द का अपना एक इतिहास है। किन्तु आठवों शताब्दी में 'ओलग्ग' सेवा के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा था, जिसके बदले में राजा के द्वारा जमींदारी आदि प्राप्त हाती थी। राजस्थानी लोकगीतों में यह शब्द अधिक प्रयुक्त हुआ है। मध्यप्रदेश में नाई, हलवाहा, चरवाहा तथा अन्य घरेलु कर्मकारों को जो वर्ष भर की वृत्ति दी जाती है उसे 'लाग' कहा जाता है । कुव० में 'महासामन्त' उपाधि का भी उल्लेख है जो राजस्थान के शासकों द्वारा धारण की जाती रही है। कुव० में इन्हें 'महानरेन्द्र' भी कहा गया है। कुवलयमाला में राजस्थान के ग्राम-प्रशासन के सम्बन्ध में भी कुछ तथ्य उपलब्ध होते.. है। यदि कोई व्यक्ति अपराधी होता था तो गांव के सभी प्रधान मिल कर उसके प्रायश्चित का विधान करते थे । गांव के स्वामी की 'दंग-स्वामी' तथा 'महामयहर' उपाधि प्रचलित थी। उत्तर-पश्चिम भारत में 'दंग' एक प्रशासनिक संस्था के रूप में प्रचलित शब्द था। .राजस्थान के सामाजिक जीवन की अनेक छवियां कुवलयमाला में अंकित है । यद्यपि समाज की संरचना में चारों वर्गों का महत्त्व यहां रहा है, किन्तु आठवीं शताब्दी में वैश्य और शूद्र जाति के लोगों का उत्कर्ष राजस्थान में अधिक हुआ है । विदेशी जातियों के मिश्रण का फल शूद्रों ने ऊंचे उठकर प्राप्त किया है । कुव० से यह सब प्रमाणित होता है । शद्र जाति का व्यापारी धनदेव व्यापारियों की मण्डी में अपने गुणों के कारण सम्मानित होता है। वैश्य जाति व्यापार प्रधान थी। महाश्रेष्ठो, नगरश्रेष्ठी आदि उपाधियां वैश्यों के लिए प्रयुक्त होती. थों। कुवलयमाला से पता चलता है कि मारवाड के वणिक दक्षिण भारत तक की यात्रा व्यापार के लिए करते थे। सैनिकवृत्ति अपनाने वाले व्यक्ति क्षत्रिय कहे जाते थे। उनकी उत्पत्ति सूर्यवंश और चन्द्रवंश से मानी जाती थी। कुछ म्लेच्छ भी योद्धा होने के कारण क्षत्रियों के समान आदर प्राप्त करते थे, जिनसे असली ठाकुरों का स्वाभाविक वैर था (मानभट की कथा)। कुव० में क्षत्रिय कुमार मानभट को ठाकुर कहा गया हैं । राजस्थान में ठाकरों को प्राचीन परम्परा है । कुव० में ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा और उनकी दिनचर्या के सम्बन्ध में अनेक सन्दर्भ हैं, जो राजस्थान के ब्राह्मणों का परिचय देते हैं । उद्योतनसरि ने कुछ अन्त्यज जातियों का भी उल्लेख किया है। वे नगर से बाहर रहती थीं तथा १- सो त पुत्तं घेत्तूण उज्जेणियस्स रण्णो ओलग्गिउं पयत्तो । दिण्णं च राइणा ओलांगमाणस्स तं चेव कूपवंद्रं गाम- कुव० ५०.२५-२६ २- शर्मा, राजस्थान थू द एजेज, पृ० ३०९ आदि । ३... तो सयल-दंग-सामिणा भणियइ जेट्ठ-महामयहरेण, कुव० ६३.२४ ' ४- सुद्द-जाईओ धणदेवो णाम सत्थवाहपुत्तो.........। कुव० ६५.२ ६- एक्को आइञ्चवंसो दुइओ ससि वंसो । तओ तत्थ...जाओ । वही १३४.१८, १९ ७- द्रष्टव्य, लेखक का शोध-प्रबन्ध, पृ० १०२-४
SR No.520756
Book TitleSambodhi 1977 Vol 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages420
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size16 MB
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