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________________ ara महावीर मन्दिर की... अध्ययन २७ अभय एवं फल प्रदर्शित हैं, जब कि शेष दो में धन का थैला स्थित है । बायीं ओर की मूर्ति के हाथों में धन का थैला, गदा पुस्तक एवं फल प्रदर्शित है । उल्लेखनीय है कि समान आयुधों से युक्त सर्वानुभूति की मूर्तियां लेखक ने कुमारिया एवं दिलवाड़ा के श्वेताम्बर मन्दिरों पर भी देखी हैं । सर्वानुभूति यक्ष की मूर्तियों की संख्या एवं स्वरूप भिन्नता से उसकी लोकप्रियता के साथ ही मूर्त अंकनों में प्रचलित विभिन्न स्वरूपों के घणेरव के कलाकार के ज्ञात रहे होने की पुष्टि होती | द्वारशाखाओं के निचले भाग पर मकरवाहिनी गंगा और कूर्मवाहिनी यमुना की स्थानक मूर्तियां चित्रित हैं । प्रतिमालाक्षणिक विशेषताओं की दृष्टि से घणेरव के महावीर मन्दिर के गूढ़मण्डप एवं मूलप्रासाद के प्रवेशद्वारों की महाविद्याओं की तुलना ओसिया ( राजस्थान ) की देवकुलिकाओं ( ११ वीं शती) और कुंभारिया एवं दिलवाड़ा ( ११ वीं - १२ वीं शती) के जैन मन्दिरों पर अंकित महाविद्याओं से की जा सकती है । प्रचलित परम्परा के निर्वाह के साथ ही घणेरव के कलाकार ने महाविद्याओं के साथ कुछ नवीन विशेषताओं को भी प्रदर्शित किया है जिसका उल्लेख किसी ज्ञात जैन परम्परा में नहीं प्राप्त होता है । सम्भव है कि वे विशेषताएं किसी ऐसी परम्परा का अनुपालन हों जो सम्प्रति हमें उपलब्ध नहीं है । प्रज्ञप्ति के साथ त्रिशूल एवं वज्रांकुशी के साथ दो वज्र एवं दो अंकुश के प्रदर्शन ऐसी ही विशेषताएं हैं । कलाकारों ने देवियों के पारम्परिक वाहनों के प्रदर्शन में नियमितता बरती है । ११ वीं और १२ वीं महाविद्याओं - सर्वास्त्रमहाज्वाला और मानवी की मूर्तियों का पूर्ण अभाव इस बात का संकेत है कि कलाकार संभवतः इनके लाक्षणिक स्वरूप से अपरिचित थे । साथ ही कुछ ऐसी देवियों को भी अभिव्यक्त किया गया है जिनकी पहचान सम्प्रति सम्भव नहीं है । ऐसी देवियों को स्थानीय परम्परा की देन स्वीकार किया जा सकता है, जो हमें आज उपलब्ध नहीं है । महाविद्याओं के अतिरिक्त कुछ प्रमुख यक्ष-यक्षियों ( यथा - सर्वानुभूति, गोमुख एवं ब्रह्मशांति यक्ष और चक्रेश्वरी एवं अम्बिका यक्षियां ) - को भी मूर्त रूप प्रदान किया गया था | महाविद्याओं एवं यक्ष-यक्षियों के निरूपण में सामान्यतः पादलिप्तसूरि कृत निर्वाणकलिका ( लगभग १० वीं- ११ वीं शती) के निर्देशों का पालन किया गया है । - गर्भगृह की बाह्य भित्तियों पर तीन दिशाओं ( पूर्व, पश्चिम, दक्षिण ) में तीर्थंकरों की तीन मूर्तियां रथिकाओं में स्थित हैं । सभी उदाहरणों में मूलनायक की आकृतियां गायब हैं । सभी मूर्तियां यक्ष-यक्षी युगल, अष्टप्रतिहार्यो एवं लघु जिन आकृतियों से युक्त हैं । सभी उदाहरणों में समान लक्षणो वाली द्विभुज यक्ष-यक्षी आकृतियां विशिष्टताओं से रहित है । गर्भगृह में महावीर की विशाल प्रतिमा प्रतिष्ठित है । अब हम बारहवीं शती की देवकुलिकाओं पर उत्कीर्ण मूर्तियों का अध्ययन करेंगे । ज्ञातव्य है कि मूर्तियां केवल उत्तर की ही कुछ देवकुलिकाओं पर उत्कीर्ण हैं । देवकुलिकाओं की बाह्य भित्ति पर उत्कीर्ण देवियों में से केवल वज्रांकुशी एवं वैरोट्या महाविद्याओं, चक्रे - श्वरी यक्षी, सरस्वती, और लक्ष्मी ( या निर्वाणी यक्षी ) की ही मूर्तियां सुरक्षित हैं । त्रिभंग मुद्रा में खड़ी चतुर्भुज वज्रांकुशी के साथ वाहन नहीं प्रदर्शित किया गया है। देवी के करों देवी का जटामुकुट से सुशोभित होना चक्रेश्वरी (पक्षी) की दो मूर्तियां प्राप्त में वरद, वज्र, अंकुश (१), एवं फल चित्रित है। आश्चर्यजनक है । करण्डमुकुट से सुशोभित चतुर्भुज
SR No.520756
Book TitleSambodhi 1977 Vol 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages420
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size16 MB
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