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सुषमा कुलश्रेष्ठ
शिशुपालवध में माघ ने नारद-वीणा के लिए 'महती' शब्द का प्रयोग किया है । आकाशमार्ग से पृथ्वी पर आते हुए नारद बडे आश्चर्य से अपनी महतो को देखते हैं, जिसमें से वायु के आघात से सभी श्रुतियाँ, स्वर, ग्राम और मूछनाए स्वतः ही बिना बजाये ही स्पष्ट हो रही थीं।
रु० क०, रघुवंश और शिशुपालवध तीनों के ही वीणा-वर्णन-परक श्लोकों को देखकर यह प्रतीत होता है कि परिवादिनी और महती दोनों ही नारद-वीणा हैं और दोनों में ही अति और ग्राम विशेष स्पष्ट होते हैं ।
श्रुतियाँ बाईस है-तीब्रा, कुमुद्रती, मन्दा, छन्दोवती, दयावती, रजनी, रक्तिका, रौद्री, क्रोधी, वज्रिका, प्रसारिणी, प्रीति, मार्जनी, क्षिति, रक्ता, संदीपिनी, आलापिनी, मंदती रोहिणी, रम्या, उपा और क्षोभिणी । ग्राम तीन है - षड्ज, गान्धार और मध्यम । अवनद्ध या आनद्ध वाद्य
वे वाद्य जो भीतर से पोले तथा चमड़े से मढे हुए होते हैं और हाथ या किसी अन्य वस्तु के ताड़न से शब्द उत्पन्न करते हैं, आनद्ध कहलाते हैं । भरतमुनि ने आनद्ध जाति के वाद्यों की संख्या एक सौ बताई है । आनद्ध वाद्यों में से मृदङ्ग, मुरज, आनक
और दुन्दुभि का राजचूडामणि ने उल्लेख किया है। मृदङ्ग और मुरज
सुधाकलश ने भगवान् शङ्कर को मृदङ्ग या मुरज का आविष्कारक बताया है । प्राचीन ग्रन्थों में मृदङ्ग, पणव तथा दर्दुर को पुष्कर-वाद्य कहा गया है । ऐतिहासिक दृष्टि से मृदङ्ग, मुरज आदि का उल्लेख वैदिक वाङ्मय में प्राप्त नहीं होता । रामायण एवं महामारत में मृदङ्ग और मुरज का उल्लेख प्राप्त होता है. किन्तु बाद में मुरज तथा मर्दल मृदङ्ग के पर्याय रूप में प्रयुक्त होने लगे । नामपरिवर्तन के साथ साथ मृदङ्ग का वह रूप जो प्राचीन काल से भरत के समय तक प्रचार में रहा, कन लुम हो गया, इसका पता लगाना कठिन हो गया है । जिस वाद्य को आज उत्तरभारतीय मृदङ्ग अथवा पखावज के नाम से जानते है, दक्षिणभारतीय जिसे आना मृदङ्गम् कहते है, वह भरतकालीन मृदङ्ग का केवल एक भाग है । मृदङ्ग में यह परिवर्तन लगभग सातवीं शताब्दी से ही होने लगा था जो शाङ्गदेव के समय तक पूरी तरह बदल गया ।
पूजादि के अवसर पर अक्सर मृदङ्ग बजाया जाता था । रुक्मिणी-श्रीकृष्ण के विवाह के अवसर पर स्त्रियाँ पार्वती तथा शिव के विवाह के मङ्गल-गीत गाती हैं, साथ में मृदङ्ग भी बजाये जाते हैं। इस प्रकार मृदङ्ग की गणना मङ्गल-वाद्यों में होती है। विवाह के हो अबसर पर सुवर्गमयी अन कावठी तथा मुरज के भा बजाए ज'ने का उल्लेख रु० क० में प्राप्त है।
१. शिशुपालवध- रणद्भिराघट्टनया नभस्वतः पृथग्विभिन्न श्रुतिमण्डलैः स्वरैः ।
स्फुटीभवद्ग्रामविशेषमूर्च्छनामवेक्षमाणं महती मुहुर्मुहुः ।।१। २. रु० क. - अथ भीष्मकान्धकपुरन्ध्रयः स्फुरगिरिजागिरीशपरिणीतिगीतयः ।
निवरीसमङ्गलमृदङ्गनिःस्वनं मणिपीठमध्यमनयन्वधूवरौ ॥६। ११ ३. , - ६१५९