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________________ रुक्मिणी कल्याण सङ्गीत १७ विद्युत् रूपी तन्त्री के निरन्तर बजाये जाने का उल्लेख हुआ है । द्वारका की स्त्रियाँ विप चिका-वादन में नितान्त निपुण हैं । वे द्वारका के प्रासादों में चन्द्रमा की कलारूप मणिमयी कोणयष्टि के द्वारा निपुणतापूर्वक विपञ्ची चजाती है किन्तु चन्द्रकला में वर्तमान सुधा (अमृत) से तन्त्री आर्द्र हो जाती है और आर्द्र तन्त्री से शुद्ध स्वर नहीं निकलते इसलिए स्वर की विपरीतता से द्वारका - रमणियाँ अत्यन्त लज्जित हो जाती हैं। कुशल वादक के लिए स्वर का विपरीत हो जाना नितान्त लज्जाजनक ही है । वीणाकोण का भी रु० क० में अनेकशः उल्लेख हुआ है ( १।७१-७२ ) । द्वारका के रत्नयुक्त प्राबाद में वीणावादन में कुशल कोई युवती कोण बनाने के आशय कलामात्रावशिष्ट चन्द्रमा को ग्रहण करने के लिए उत्सुक हो जाती है । वीणा की तुम्बी का भी राजचूडामणि ने उल्लेख किया है । विरहिणी afraft को अनेक प्रकार की मूर्च्छनाओं को प्रकट करने वाली वीणा भी विमना ही बनाती है ।" द्वारका के निवासी परिवादिनी-वादन में कुशल हैं । वे प्रकट हुए पञ्चम राग से युक्त चिह्नवाली परिवादिनी को हाथ में लेकर श्रुति तथा ग्राम के मार्ग की अनुकूलता के कारण संसार में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके हैं रघुवंश के अष्टम सर्ग में वर्णन है कि जब नारदमुनि गोकर्णक्षेत्रस्थ शङ्कर के दर्शन के ( लिए जा रहे थे, उस समय उनकी गिरी, जिससे उनकी मृत्यु हो गई वीणा के लिए परिवादिनी शब्द का ही परिवादिनी वीणा का उल्लेख किया है । उसके बाद होता है । यतिमान - पादखण्ड, अभिधान - चिन्तामणि उल्लेख प्राप्त होता है । इसमें सात तन्त्रियां होती हैं । १. रु०क० - ८।४५ २. कोकाररेखामणिकोणयष्ट्या निक्वाणयत्तो निपुणं विपञ्चीम् । सुधा तन्त्रस्वरविप्लवेन सौधेषु यस्यां सुदृशस्त्रपन्ते ।। १.७२ शोधरा यन्मणिसौधभूमौ वीणागुणास्फालनलब्धवर्णा । एurरेखाग्रहणाय यत्नं कोणाशया कोरकितं विधत्ते ॥ ११७१ ४. गन्धर्वाणां गायतामिन्दिरेशं वीणालाबुं व्याजतोऽमी गृहीत्वा । " ३. १ ५. 97 वीणा में लगी हुई ८३३३ - ३५ ) । प्रयोग किया है " अन्ये पाथोमानवीनां कुमाराः पारावारे पश्य दूरं प्लवन्ते ||५|१८ प्राञ्चितोच्चावचमूच्छेनायां विपश्ञ्चिकायां विमनायते सा । उदञ्चदुत्ताललयेऽपि लास्ये न किञ्चिदप्यञ्चति नर्म तन्वी ॥ ३९२ ६. रु० क० पाणौ गृहीत्वा परिवादिनीं यत्पौराः स्फुरत्पञ्चमरागमुद्राम् । अहो श्रुतिग्रामपथानुसारप्राप्तप्रकर्षा जगति प्रथन्ते || ११७४ ७. रघुवंश - भ्रमरैः कुसुमानुसारिभिः परिकीर्णा परिवादिनी मुनेः । दहशे पवनावलेपनं सृजती बाष्पमिवाञ्जनाविलम् ||८|३५ सप्तभिः तन्त्रिभिः दृश्यते परिवादिनी । ३० ततवाद्यानि अमरकोश वीणा तु वल्लकी, विपञ्ची, सा तु तन्त्रीभिः सप्तभिः परिवादिनी । ८. वाद्यप्रकाश पुष्पमाला इन्दुमती के वक्षःस्थल पर इस स्थल पर कालिदास ने नारद की । कहते हैं कि सर्वप्रथम कालिदास ने इसका नाम सङ्गीत-मकरन्द में उपलब्ध आदि में भी परिवादिनी वीणा का —
SR No.520756
Book TitleSambodhi 1977 Vol 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages420
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size16 MB
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