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________________ सुषमा कुलश्रेष्ठ वर्षात्रात में मेघ! को देखकर प्रमन्न मयूर ध्वनि करता है। षड्ज की उत्पत्ति मयर से मानी गई है । मतङ्गमुनि के अनुसार षड्ज मयुरो बदति ।' ६ स्थानों से उत्पन्न होने के कारण सङ्गोत के प्रथम स्वर को पइज कहते है (नामाकण्ठमुरस्तालुजिह्वादन्ताश्च संस्पृशन् । षड्भ्यः सजायते यस्मात्तस्मात्पडूज इति स्मृतः॥) कवि के अनुसार वर्षाऋतु से सङ्गीत को सीखकर उसका अभ्यास करने वाले मयूों की ध्वनि विस्वर अर्थात् पक्षी का स्वर अर्थात् षड्न बन गई ।' कोकिल से पञ्चम स्वर की उत्पत्ति मानी गई है । रु. क. में कोकिलों ने पञ्चम स्वर के चमत्कार द्वारा रमणियों को बसन्तागमनकी सुचना दे दी। वादन विभिन्न वाद्यों द्वारा उदभूत स्वर तथा लय का आनन्द वाद्य सङ्गीत अथवा वादन द्वारा प्राप्त होता है। साङ्गीतिक वाद्य चार प्रकार के माने गये हैं ततं तन्त्रीकृतं ज्ञेयमवनद्धं तु पौष्करम् । घनं तालस्तु विज्ञेयः सुषिरो वंश उच्यते ॥ ना० शा० २८२ अब इन चारों प्रकार के वाद्यों का रु० क० में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार विवेचन किया जायेगा । श्री राजचूडामणि को इन चारों प्रकार के वाद्यों का पूर्ण ज्ञान था । तत वाद्य उंगलियों से छेडकर ( यथा स्वरमण्डल, तम्बूरा आदि ), कोण या त्रिकोण (मिजराब) की सहायता से ( यथा सितार , वीणा, सरोद आदि ), गज से रगड़कर ( यथा सारङ्गी इसराज, दिलरुबा आदि) तथा डण्डी से प्रहारकर ( यथा शन्तूर आदि ) बजाये जाने वाले वाद्य तत वाद्य कहलाते हैं। तत वाद्यों में विपञ्चिका, वीणा, परिवादिनी तथा तन्त्री का कवि ने अनेकशः प्रयोग किया है। शास्त्रों में तीन प्रकार की तन्त्रो वीणाओं - एकतन्त्री, द्वितन्त्री, तथा त्रितन्त्री का उल्लेख मिलता है। भगवान ब्रह्मा नाट्यवेद के आविष्कर्ता एवं भरतमनि के शिक्षक थे। इनकी वीणा का नाम ब्राह्मी वीणा था। ब्राह्मी वीणा के अन्य नाम घोषा. घोषक, घोषवतो एवं एकतन्त्री भी कहे गये हैं । एकतन्त्री वीणा में केवल एक तार होता था । बायें हाथ में बौस की एक बारहअंगुल लम्बी शलाका लेकर उससे तार पर विभिन्न स्वरों की सारणायें की जाती थी । एकतन्त्री में सारिकायें न होने के कारण समस्त ग्राम. मच्छेनायें एवं २२ भुतियाँ प्रतिक्षण उपस्थित रहती थीं। भरत, मतङ्ग तथा नारद के समय तक जिसे घोषक, घोषवती अथवा ब्राझी वीणा कहते थे, उसी को नान्यदेव, सुधाकलश तथा शार्ङ्गदेव आदि के समय में एकतन्त्री के नाम से पुकारा गया है । नारदकृत सङ्गीतमकरन्द में उन्नीस वीणाओं के नाम प्राप्त होते हैं । तारों की संख्या तथा वादन-विधि के भेद से एक वीणा के अनेक भेद बन गये। रुक० में वर्षाऋतु द्वारा १ रु. क.-पाथोदस्वरमण्डलीफलकभूपर्यायलोलास्तडि त्तन्त्रीरातयातिघर्षरतरोत्तालस्वरयञ्जिकाः । शश्वद्यालयतः पयोदसमयादानं समभ्यस्यतां प्रायेण प्रचलाकिनां समभवद्गीतिस्वरो विस्वरः ॥८।४५ २. रु. १०-प्राप्तं वसन्तसमयं प्रमदावनेभ्यः संवेद्य पञ्चमचमरिक्रयया सहर्षम् । सम्पूर्णरागसहकारदलापदेशाकि पूर्णपात्रमलभन्त वसन्तघोषाः॥१०॥५९
SR No.520756
Book TitleSambodhi 1977 Vol 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages420
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size16 MB
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