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रुक्मिणीकल्याण में सङ्गीत
सुषमा कुलश्रेष्ठ दक्षिण भारतीय कवि श्री राजचूडामणि दीक्षित द्वारा प्रणीत रुक्मिणीकल्याण* महाकाव्य में श्रीकृष्ण-रुक्मिणी के विवाह की प्रसिद्ध कथा वर्णित है । श्री राजचूडामणि का विविध शास्त्र-विषयक पाण्डित्य उनकी इस कृति में परिलक्षित होता है । सङ्गीतशास्त्र में कवि की महती अभिरुचि थी । गीतं वाद्य च नृत्यञ्च त्रय सङ्गीतमुच्यते । सङ्गीत के अन्तर्गत गायन, वादन तथा नृत्य तीनों को परिगणित किया जाता है । अतएव क्रम से इन तीनों का रु. क. में प्रयोग विवेचनीय है । गायन
गायन में गेय किसी पद्य को स्वरबद्ध करके गाया जाता है । द्वारका की स्त्रियाँ अमृततुल्य रीति वाली गीतियों के गान में नितान्त कुशल हैं'। रुक्मिणी तथा श्रीकृष्ण के विवाहके अवसर पर स्त्रियाँ पार्वती तथा शिव के विवाह के मङ्गल-गीत गाती हुई वर-वधू को मणिमय पीठ पर बिठाती हैं । उनके परिणय-गीतों के साथ मृदङ्ग भी बजाये जाते हैं । रु. क. में गन्धर्वो तथा शालीपालिनारियों के सुमधुर गायन का भी उल्लेख प्राप्त होता है । भ्रमरों की गुञ्जार में भी कवि ने सङ्गीत का वर्णन किया है ।
षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद - सङ्गीत के ये सात स्वर विभिन्न पशु-पक्षियों के स्वर से उत्पन्न माने जाते हैं । राजचूडामणि इस विषय से पूर्ण परिचित थे । षड्ज की उत्पत्ति पर कवि की कल्पना है कि इन्द्रधनुष रूपी कोण वाली वीणा से स्वर को जानने वाले मेघ से मयुर-समूह ने उज्वल-गुण-युक्त षड्ज स्वर सीखा ।
* रुक्मिणीकल्याण (श्रीराजचूडामणिदीक्षित-प्रणीत)(अ) वाणीविलास प्रेस, श्रीरङ्गम् से प्रकाशित (आ) मौक्तिकमालिका व्याख्या सहित प्रथम दो सर्ग, अड्यार लाइब्रेरी, मद्रास से प्रकाशित,
१९२९ ई. (इ) हस्तलिखित श्रीबालयज्ञवेदेश्वरकृत मौंक्तिकमालिका व्याख्या, अड्यार लाइब्रेरी, मद्रास १ रु. क.-प्रायः प्रियालः प्रमदाजनानामाकर्ण्य गोतोरमृतैकरीतीः ।
सद्यः स्फुरत्कोरकसङ्गिभृङ्गीसङ्गीतमयानुकरोति यस्मिन् ॥१४९९ २" - अथ भीष्मकान्धकपुरन्ध्रयः स्फुरगिरिजागिरीशपरिणीतिगीतयः ।
निबरीसमङ्गलमृदङ्गनिःस्वन मणिपीठमध्यमनयन्वधूवरौ ।।३।११ ३ रु. क.- गन्धर्वाणां गायतामिन्दिरेशं वीणालाबु व्याजतोऽमी गृहीत्वा ।
अन्ये पाथोमानवीनां कुमाराः पारावारे पश्य दूरं प्लवन्ते ॥५।१८ समुदयसमबद्रवीकृताभिर्माणिततिभिः स्फुरिता वृतीक्षुकाण्डाः ।
किमजनिषत शालिपालिनारीसुमधुरगीतिसुखोदिताश्रुपूराः ।।९।२२ ४ " -१।८८,९९ ५ " -शातमन्यवशरासनकोणया वीणया किमपि वेदितस्वरात् । ..
षड्जमुज्ज्वलगुण बलाहकादश्यगीषत कुलानि केकिनाम् ।।८।१५