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दलसुख मालवणिया
में पृ० तीन की पंक्ति १६-१७ की तुलना प्रस्तुत में सूत्र ४० से ५३ तक करनी चाहिए। शुबींग में प्रस्तुतगत ५१-५३ लिये नहीं गये जब कि चूर्णि के अनुसार लेना जरूरी है ।
सूत्रांक देने की दोनों की प्रथा में भी काफी भेद है। उदाहरण के तौर पर प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देश के सूत्रों की संख्या शुब्रोंग में ७ है जब कि प्रस्तुत में १२ है। इसीसे जाना जा सकता है कि दोनों ने वाक्य-विन्यास करने में पृथक् पृथक् पद्धति अपनाई है । प्रस्तुत में कहीं कहीं निरर्थक सूत्रसंख्या बढाई गई है यह देखा जा सकता है, जैसे कि उसीमें शुबीग के सूत्रांक ७ के स्थान में ९-१२ किये गये हैं- यह भ्रामक है । ऐमा अन्यत्र भी है। इस मनमाने वाक्यविन्यास के कारण 'इति' जैसे शब्दसे भी वाक्य का प्रारंभ माना गया जो कभी हो सकता नहीं-देखें पृ० ७० सूत्र २।
मूलसूत्रों में कहीं कहीं काला अक्षर मुद्रित है-वह क्यों है- इसका कोइ स्पष्टीकरण नहीं है। क्या वह पद्यांश की सूचना है या उसके महत्त्व की ?
कहीं भी कोई पाठान्तर की नोंध नहीं दी गई तो क्या इससे यह समझा जाय कि इस सूत्र में पाठांतर है ही नहीं ? संपादक ने शुव्रींग के द्वारा दिये गये पाठांतरों का उपयोग
अवश्य किया है, अन्यथा जिस रूप में यह सूत्रपाठ तैयार हुआ है, हो नहीं सकता था । किन्तु किसो निर्देश के अभाव में क्या यह माना जाय कि संपादक यह दिखाना चाहते है कि किसी एक ही प्रति में ऐसा ही पाठ था या परंपरा से श्रुतानुसारी ऐसा ही पाठ उपलब्ध है ? यदि ऐसा नहीं है तो यह स्पष्टीकरण जरूरी था कि किन आधारोंसे प्रस्तुत संस्करण तैयार किया गया । आशा रखें कि आगामी सूत्रों के संस्करणों में ऐसा स्पष्टीकरण किया जायगा ।
अनुवाद सुवाच्य बना है और स्पष्ट है किन्तु कहों कहीं स्पष्टोकरण अपेक्षित है-वह दिया नहीं गया। जैसे कि पृ० २२ में सूत्र. ६७ में मूल में 'दीहलोगसत्थ' है-उसका अनु. वाद 'अग्नि शस्त्र' किया गया है। केवल भाषाका अनुसरण किया जाय तो यह अर्थ कभी हो नहीं सकता। अतएव यह स्पष्टीकरण जरूरी था कि प्रस्तुत में टीका का अनुसरण करके ही यह अर्थ किया गया है । पृ० ३६, सूत्र १२३ 'तसंति पाणा पदिसोदिसासु य' ऐसा मुद्रित है। वह 'तसंति पाणा पडिसा दिसासु य' होना चाहिए था । उसके अनुवाद में कहा गया है- 'दुःख से अभि भूत। प्राणी दिशाओं और विदिशाओं में (सब ओर से) भयभीत रहते हैं।' प्रस्तुत में विदिशा शब्द मूल में नहीं है फिर भी उसे कोष्टक में रखा नहीं है यह उचित नहीं। इस प्रकार अन्यत्र भी हुआ है। पृ. ४२ सू० १४९ में 'वीजिउं' छपा है । वह 'जीविउँ' होना चाहिए । पृ० ७२, सू०१२ व' के स्थान में 'च' चाहिए । पृ० ८५ सू० ७६ में 'परिवयंति' का अर्थ 'तिरस्कार करते हैं' किया है वह विचारणीय है । पृ० १३८ में स० ७३ में 'णिसिद्ध' पद जोड़ा गया है वह आधारहीन नहीं है क्यों कि पृ० १४२ में सत्र. ८६ में वह पद मौजुद है। पृ० १५८ में सू० २२ में 'अणारियवयणमेयं' क्यों छोड़ दिया यह जानना जरूरी है ।
समग्रभावसे देखा जाय तो आचारांग का यह हिन्दी संस्करण मुद्रण की दृष्टि से अच्छा है किन्तु विद्वानों की अपेक्षा की पूर्ति करता नहीं। जिज्ञासु धार्मिक जनों के लिए अनुवाद
और टिप्पण बहुमूल्य है-- इसमें तो संदेह नहीं। किन्नु आचार्य श्री तुलसी जी और मुनि नथमलजी और उनके अनेक सह्योगी मुनियों के होते हुए विद्वज्जन और सामान्य जनको तृप्त करे ऐसे संस्करण की अपेक्षा है- उसकी पूर्ति होना तो बाकी ही है।