________________
--
मुरली अथव
रुक्मिणीकल्याणमें सङ्गीत दुन्दुमि
वैदिक साहित्य में वीणा को ही भांति दुन्दुभि का भी अनेकशः उल्लेख हुआ है। जिस प्रकार तबले में दो नग हाते हैं - एक दायाँ और दूसरा बाँयाँ और दोनों को मिलाकर तबला कहा जाता है, उसी प्रकार दुन्दुभि में भी दो नग होते हैं - एक बड़ा नगाड़ा जिसका शब्द गम्भीर होता है तथा एक छोटा नगाड़ा जिसका शब्द छोटा तथा ऊँचा होता है । इस प्रकार यह दो स्वर वाला दो नग का वाद्य दुन्दुभि कहलाता है।
आनन्दोत्सव तथा विवाहादि के अवसर पर दुन्दुभि बजाई जाती है । संस्कृत साहित्य में स्थान स्थान पर प्रसन्नता के अवसर पर देवताओं द्वारा दुन्दुभि-वादन का उल्लेख हुआ है । रु. क में रुक्मिण-श्रीकृष्ण के विवाहावसर पर सुरदुन्दुभि वादन का वर्णन उपलब्ध होता है । सुषिर वाद्य " मुख की वायु द्वारा बजाये जाने वाले वाद्य सुषिर वाद्य कहलाते हैं । रु.क. में मुरली, वंशी और शङ्ख इन सुषिर वाद्यों का उल्लेख प्राप्त होता है ।
वंशी वंशी से तात्पर्य बाँसुरी से है । महाकवि कालिदास ने कुमारसंभव में वंशी के जन्मसम्बन्ध में एक सुन्दर कल्पना प्रस्तुत की है। उन के अनुसार भौरों द्वारा छिद्रित वंशनालिका में वायुप्रवेश के कारण उत्पन्न ध्वनि को सुनकर प्रभावित हुए किन्नरों ने उस छिद्रित वंशनालिका को वंशवृक्ष से पृथक् कर अपनी मुखवायु द्वारा उसका वादन किया और इस प्रकार उसे वाद्य के रूप में प्रचलित किया ।
श्रीकृष्ण वंशी-वादन के लिए सर्वाधिक प्रसिद्ध रहे हैं। उनकी वंशो से उद्भूत सरस मधुर स्वर के सम्मुख पिक भी लज्जित हो जाता है । रुक्मिणी की मान्यता है कि उनका प्रिय निश्चय ही पिक के द्वारा नहीं देखा गया क्योंकि यदि देखा गया होता तो वह उनकी वंशी के स्वर से लज्जायुक्त होता हुआ कदापि उच्च स्वर से न गाता ।
मुरली अथवा वंशी के बादन के लिए महतो चातुरी अपेक्षित है। मुरली के छिद्रों पर अङ्गलि-संचालन एवं मुखवायु द्वारा मुरली बजाई जाती है। श्री राजचुडामणि ने रुक्मिणि के सौन्दर्य-वर्णन-प्रसङ्ग में उनको बिवली के सौन्दर्य का मुरली के रूपक द्वारा अति सुन्दर वर्णन किया है। यह वर्णन कवि के प्रौढ़ सङ्गीतज्ञान का परिचायक है । रूक्मिणी की नतनाभि रूप मुख वाली रोमलता रूप मुरली नवयौवन रूप श्रीकृष्ण की निरन्तरं रखी गई तीन अगुलियों का त्रिवली के बहाने स्मरण करवाती है। १. ,, - जयशङ्खसङ्घकनकावलीमुरजवाद्यवाद्यनिनदे निरन्तरे ।
प्रसभं प्रतिध्वनिरिवाभ्रमण्ड पे सुरदुन्दुभिध्वनिभरो व्यज़म्भत ॥६५९ २. कुमारसंभव - यः पूरयन् कीचकरन्ध्रभागान्दरीमुखोत्थेन समीरणेन ।
उद्गास्यतामिच्छति किन्नराणां तानप्रदायित्वमिवोपगन्तुम् ।।१४८ ३. रु. क० - प्रियो ममायं नियतं पिकेन व्यालोकि नानेन विलोकितश्चेत् ।
तदीयवंशीरवजातलजस्तारं न कूजेदिति मन्यते सा ।।३।३१ ४. ,, - नतनाभिमुखाञ्चिता नताङ्गथा मुरलीरोमलता वयोमुरारेः ।
मिषति त्रिवलीमिषादमुष्यामनिशव्यापृतमगुलित्रयं किम् ॥४।२५