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पं. अमृतलाल भोजक
अणगल जल जे मुषि नवि धरइ, जाणी दोष भक्षण नवि करइ । न्यानसरीखें अहिनिसि रमइ, कहि० ॥२२॥ उत्तमसरिसु अहिनिसि रमइ, मध्यम मारग सवि परिहाइ । सहिजिई सील-संतोषिई रमइ, कहि० ॥२३॥ सकतिसारू पालइ व्रत-नीम, जे नवि लोपइ तेहनी सीम। निर्मलचित्तस्वभावइं रमइ, कहि० ॥२४॥ परिघल दान दया मनि वसइ, परोपकारिइं मन उल्हसइ । लज्जा-दाक्षिण्यसरिसिउ रमइ, कहि ॥२५॥ सुख संसार असार मनि धरइ, वानप्रस्थनो मनोरथ करइ । केवल वैकंठ वंछइ जेह, कहि० ॥२६॥ आगम सिद्धांत जेहनइ मनि गमइ, श्रोता सरिस्यु अहिनिसि रमइ । मोक्षार्थी वित पन्ना जेह, कहि० ॥२७॥ मायारहित क्रिया जे करइ, राग द्वेष ममता परिहरइ । आपोपुं न वषाणई जेह, कहि ॥२८॥ भांड भवाई कतूहल थाइ फाग षेलिई नवि जोवा जाइ। वेश्या नाटिक न जोइ जेह, कहि० ॥२९॥ नर नारी जिहां कंडा करइ, थानक जाणी ते परिहरइ । कामकथा न वांछइ जेह, कहि० ॥३०॥ परनारी देषी मनमाहि जाणइ एहना प्रणमुं पाय । माता भणोनइ मानइ जेह, कहि श्रीराम० ॥३१॥ विश्वजनेता कहीई नारि, अवतरसिउं ए उदरमझारि । एह भाव मनि आणइ जेह, कहि श्री० ॥३२॥ पवित्र गात्र गंभीर मति सान, चित्त अहंकार नही अभिमान । गर्वपणउं नवि आणइ जेह, कहि० ॥३३॥ सदा सकोमल बोलइ वयण, कहिना दोष न देषइ नयण । अवगुण कहिना नवि भासइ जेह, कहि० ॥३४॥ छे।इ कापइ नइ घासवइ, तु हि अवगुण नवि दाषवइ । चंदननी परि सीतल जेह, कहि ॥३५॥ अगनि मुषि आणीनइ धरइ, आप दहइ परनई गुण करई । अगरतणी परि सगुण सनेह, कहि० ॥३६।।