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________________ जैन सम्मत संज्ञा अने संज्ञी ३३ अथवा तो ते होती ज नथी.'° एनो अर्थ एवो थयो के मात्र मनोलब्धिना अस्तित्वथी ज जीवने संज्ञी कही शकाय नहि, पण जो मनोलब्धि पूरता प्रमाणमा होय तो ज तेने संज्ञी कही शकाय. आहारादि दश संज्ञानो अर्थ उपयोग मात्र करवामां आवतो हतो. पण केटलाक आचार्यो ओघ संज्ञानो अर्थ ज्ञानोपयोग अने लोकसंज्ञानो अर्थ दर्शनोपयोग करता हता, जेनो उल्लेण्ड हरिभद्रे [नं. ह. ६९] 'अन्ये' कहीने कर्यो छे. आ अर्थ प्रमाणे एकेन्द्रिय जीवोने पण मति ज्ञान थई शके एम मानवु पडे. परिणामे तेओने संज्ञी तरीके स्वीकारवा पडे. आ मुश्केली नन्दिना टीकाकारोना ख्यालमा हती तेथो तेमने कहेवू पडयु के मनोलब्धि होय पण जो ते अल्प प्रमाणमां होय तो ते जीव असंज्ञी ज छे. प्रज्ञापनामां' जे संज्ञिपंचेन्द्रियनो उल्लेख छे तेने अहीं गर्भव्युत्क्रान्तिक तरीके उल्लेख्यो छे, एवं अनुमान करी शकाय. जिनभद्रे नारकोनो समावेश संज्ञी तरीके कर्यो छे.१९ नन्दिना टीकाकारोए एवी पण स्पष्टता करी छे के, संज्ञी जीवोने पांच ज्ञानेन्द्रियो अने छहा मनथी अर्थनी स्पष्ट उपलब्धि थाय छे. अने संमूर्छिम पंचेन्द्रियथी एकेन्द्रिय सुधीना जीवोने क्रमशः अस्पष्ट, अस्पष्टतर, अस्पष्टतम अर्थोपलब्धि थाय छे.२० आ रीते एकेन्द्रिय जीवोने अत्यन्त अस्पष्ट अर्थोपलब्धि थाय छे तेथी तेमनु ज्ञान सर्वजघन्य छे.. (३) दृष्टिवाद संज्ञा :-जे जीवने संज्ञिश्रुतनो क्षयोपशम थयो होय ते जीव संज्ञी छे. अने जेने तेवो क्षयोपशम थयो नथी ते जीव असंज्ञी छे." नन्दिना टीकाकारोए आनी स्पष्टता करता कडं के संज्ञिश्रुत ए, सम्यक श्रुत छे. आ प्रकार- श्रुत सम्यकूदृष्टि जीवने हाय छे. ए जीव राग वगेरेनो निग्रह करी शकतो होवाथी ते वीतराग समान छे.२२ अने ते क्षायोपशमिक ज्ञानमां रहेलो होय छे.२७ आ प्रकारनी संज्ञाने भूतकाळना स्मरण अने भविष्यकाळनां चिंतन साथे सम्बन्ध छे. केवली जीवो स्मरण अने चिंतनने ओळंगी गया होवाथी तेमनो समाबेश संज्ञी के असंज्ञीमां थई शके नहि.२४ आथी तेओने संज्ञातीत कह्या छे. आ स्पष्टता प्रमाणे (केवली सिवायना) सम्यकदृष्टि जीव संज्ञी छे अने मिथ्यादृष्टि जीव असंज्ञी छे. कारण के सम्यकूदृष्टि जीव हितमा प्रवृत्ति करे छे अने अहितमा प्रवृत्ति करता नथी. आ प्रकारनो विवेक मिथ्याष्टि जीवमां होतो नथो.२५ अहीं एक एवो प्रश्न उपस्थित थाय छे के केटलाक मिथ्यादृष्टि जीवोने हित-अहितनेा विवेक करी शके तेवी संज्ञा होय छे. तो तेवा जीवोने संज्ञी केम न कहेवा ? आ प्रश्ननो जवाब ए छे के, जेम व्यवहारमा कुत्सित शीलने अशोल कहेवामां आवे छे तेम मिथ्यादृष्टि जीवना ए कुत्सितज्ञानने असंज्ञा कहेवामां आवे छे. तेनु ज्ञान कुत्सित एटला माटे छे के, तेणे मिथ्यादर्शननो परिग्रह को छे तेनुं ज्ञान संसारनु कारण बने छे; तेने सत्असत् नो विवेक होतो नथी अने तेने ज्ञाननुं फळ मळतुं नथी.२६ तार्किक परम्परा संज्ञानो अर्थ प्रत्यवमर्श करे छे.२० प्रत्यवमर्शनो अर्थ प्रत्यभिज्ञान थाय छे.२० (१७) नं. ह. ६८, मल पृ. १९० (८) प्रज्ञा. २३-२४. (१९) वि.भा. ५२१. (२०) वि. भा-५०७-५१०, नं. चूं. ६६. मल. पृ. १९० (२१) नं. सू. ७०. (२२) वि. भा. ३९९१, नं. ह. ७०, मल. पृ. १९१, (२३) वि. भा. ५१४. (२१) वि. भा. ५१५; नं. च्, ६८. (२५) वि. भा. ५१४; नं.चू. ६८ न ह.७०, मल. पृ. १९१. (२६) वि. भा. ५१६-१८, नं. चू. ६८. (२७) लघीय. ३-१०, न्या कु. पृ. १०४. (२५) त. श्लो. वा १-१३-७. सम्बोधि ४.१
SR No.520754
Book TitleSambodhi 1975 Vol 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1975
Total Pages427
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size30 MB
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