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हरनारायण उ. पंडया
प्रत्यभिज्ञानको समा र अरमान भ ने
श्रमजानमा पण थाय छे." आ प्रमाणे तार्किक परंपरामा संज्ञानो अर्थ मूल अहो दृपिवादसंज्ञामां जोई शकाय,
उपर्युनः वय प्रकागेमा हेनुवादसंनी अने कालिकसंज्ञी जीवो बच्चे तफावतं ए छे के हेनुवादमा प्रायः वर्तमानकाळ परतो ज विचारणा करी शके छे. आम छतां केटलाक जीवोनी विचारणान क्षेत्र या विशाळ होय छे. तेओ भूतकाळ अने भविष्यकाळ विषयक बिचाया पग करी शके छे, आम छनां आ बन्ने काळ वर्तमानकाळनी तद्दन नजीकना होय छ." ज्यारे कालिकमंजी जीवो मुदीर्घभूतकालीन घटनाओनु स्मरण अने सुदीर्घ भविष्यकालीन घटनान चितन करी शके छे. आम हेतुवादसंज्ञी जीवोनी विचारणानी काळमर्यादा अल्प होय 5. ज्यारे कालिकसंजी जीवोनी विचारणानी काळमर्यादा लांबी होय छे. आथी नन्दिना टीकाकागा कालिक संजानी गर्ने दोध शब्द मूकीने नेने दीर्घकालिकी संज्ञा तरीके ओळखावी छे.32 हेतुबाद प्रमाणे दि इन्द्रियी मठिम पंचेन्द्रिय सुधीना जीवो संजी कहेवाय छे पण ते ज जोवो कालिकोपदेश प्रमाण अमेजी गणाय छे.
कालिकोपदेशा प्रमाणे जे जीवो संशी गणाय छे तेमांथी जे जीवो सम्यकदृष्टि छे तेओ ज दृष्टियाद प्रमाणे संज्ञी गणाय छे, बाकीना असंज्ञी कहेवाय छे. आम उत्तरोत्तर संज्ञी जीवोनुं क्षेत्र मर्यादित थर्नु जाय छे. जैन मत सम्यज्ञान उपर विशेष भार दे छे. तेथी संज्ञी अने असंहीना ख्यावर्तक लक्षण तरीके दृष्टिवाद संज्ञा अस्तित्वमा आवी होय तेम लागे छे.
उपर जोयु तेम एक तरफ संजी-असंज्ञी विषे त्रण प्रकारे वर्गीकरण थतां हता. तो बीजी तरफ एक ज वर्गीकरणनो स्वीकार थतो हतो. जेमके उमास्वातिए “संज़िनः समनस्काः" कहीने एक ज वर्गीकरणनो स्वीकार को छे. केटलाक समय सुधी वर्गीकरणनी आ बन्ने परंपरा समान रीते चालु रही हती. परंतु परवर्ती आचार्योने लाग्यु हो के त्रण प्रकारना वर्गीकरणो बिनजरूरी छे. कारण के एक वर्गीकरण प्रमाणे जे जीव संज्ञी कहेवाय छे ते ज जीव बोजा वर्गीकरण प्रमाणे असंज्ञी गणाय छे आ रीते संजी-असंज्ञीना वर्गीकरणमा एकवाक्यता जणाती नथी. आथी एक ज प्रकारना वर्गीकरणनो स्वीकार करवो आवश्यक छे. अने तेना व्यावर्तक लक्षण तरीके ममनस्कत्व परतुं छे. यशोविजयजीए उमास्वातिने अनुसरीने जणाव्यु के जे जीव समनस्क होय ने संज्ञी अने जे जीव अमनस्क होय ते असंज्ञी छे.३५
(२९) तेन स्मृत्याद्यविशदं ज्ञानं श्रुतमित्युक्तं भवति । न्या. कु. पृ. ४०५, अत्र च शब्दसंयोजनात् प्राक् स्मृत्यादिकमविसंवादिव्यवहार निवर्तनक्षम प्रवर्तते तन्मतिः, शब्दसंयोजनात् प्रादुर्भूतं तु सर्व श्रुतमिति विभागः । सन्मति टी. पृ. ५५३; षड् द० बृह. पृ. ८५. उधृत न्या. कु. पृ. १०४. (३०) वि. भा. ५१३; नं चू, ६७, नं. ह.६९; मल. पृ. १९० (३१) वि.भा. ५१३, नं. चू. ६७. (३२) वि. भा. ५०६; नं. चू. ६६. (३३) वि. भा. ५०६, नं. चू. ६६, नं. ह. ६८, मल० पृ. १८९. (३४) त. सू. २-२५. (३५) समनस्कस्य श्रुतं संज्ञिश्रुतम् । जै.त.भा. पृ ७,