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________________ मोक्षधर्मप्रकरण की दार्शनिक चर्चा सामान्यतः भौतिक समझे गए तत्त्वों के अतिरिक्त मन, अहंकार बुद्धि भी समाविष्ट हैं) । अब प्रश्न है कि प्रस्तुत शरीर-घटकों से बननेवाले शरीरों का संचालन करने के लिए 'आत्मा' कहां से आएगा । शरीर से पृथक् आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए युक्तियां मोक्षधर्मप्रकरण में चार बार दी गई हैं, अतः यह तो कहा ही नहीं जा सकता है कि शरीर का संचालन करने के लिए किसी आत्मा की आवश्यकता नहीं । लेकिन यह बात ध्यान देने योग्य अवश्य है कि प्रायः कहीं भी इस आशय का कोई उल्लेख नहीं कि प्रलयकाल में आत्माओं का क्या होता है । कहा जा सकता है कि प्रलयकाल में आत्माएं ब्रह्म में लीन हो जाती हैं तथा सृष्टिकाल में ब्रह्म में से आविर्भूत हो जाती हैं। लेकिन यह एक महत्त्वपूर्ण मान्यता हुई और इसका सृष्टि-प्रलय के प्रसंग में कहीं भी उल्लिखित न होना मारके की बात है। लगता ऐसा है कि आत्माएं ब्रह्म से पृथक् कोई तत्त्व हैं यह कहने में मोक्षधर्मप्रकरण-रचयिताओं को स्वाभाविक हि चक है; इसके विपरीत आत्मा को 'ब्रह्म' कहना उन्हें रुचिकर लगता है । लेकिन स्पष्ट ही जब प्रसंग आत्मा के पुनजन्म-चक्र में फंसने का हो तब आत्मा को ब्रह्म कहना कठिनाई उपस्थित करेगा; इतना ही नहीं, मोक्षधर्मप्रकरण के आत्मा संबंधी अधिकांश स्थलों में साधारण संसारी आत्मा की ही बात हैं और वहां सर्वत्र आत्मा को ब्रह्म कहना कठिनाई उपस्थित करेगा । अतः. मोक्षधर्मप्रकरण में पाठक के मन पर एक ओर तो यह छाप पडती है कि आत्मा ब्रह्म है और दूसरी ओर उलटे यह छाप कि आत्मा का वर्णन ब्रह्म का वर्णन नहीं। अध्याय ३०८ (पूना २९६) में शब्दशः प्रकृति को २४ वां तत्त्व, आत्मा को २५ वा तत्त्व तथा परमात्मा को २६ वां तत्त्व कहा गया है लेकिन वहां भी बात इस प्रकार की गई है जैसे मानों २५ वां तत्त्व जब अपने को २४ वें तत्त्व से भिन्न समझ लेता है तब वह २६ वें तत्त्व से एक रूप हो जाता है । अतः निष्कर्ष निकालना ही पड़ेगा कि मोक्षधर्मप्रकरण में प्रयत्न हो रहा है प्राचीन उपनिषदों के ब्रह्मात्मैक्य के सिद्धान्त की संगति आत्म-बहुत्व तथा आत्म-संसारित्व के सिद्धान्त के साथ बैठाने का । लेकिन इन दो सिद्धान्तों के बीच संगति बैठाने का काम सरल नहीं । कम से कम मोक्षधर्मप्रकरण की एतद् सम्बन्धी चर्चाएं तो मन पर यही छाप छोडती है। यह सच है कि आत्म-बहुत्व तथा आत्म-संसारित्व का सिद्धान्त सांख्यकारिका में अपने जिस रूप में उपस्थित है वह भो कम कठिनाईयों से भरा नहीं लेकिन वे कठिनाईयां मोक्षधर्मप्रकरण में अनेक गुनी हो गई है; और यही अनुमान
SR No.520754
Book TitleSambodhi 1975 Vol 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1975
Total Pages427
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size30 MB
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