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कृष्ण कुमार दीक्षित आ सकता है कि इसी युग में प्राचीन उपनिषदों के ऊहापोहों से उन ऊहापोहो को दिशा में संक्रमण हुआ था जिन्हें हम ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका में ग्रन्थबद्ध पाते है लेकिन इस संक्रमण की प्रक्रिया पर प्रकाश डालने वाली साहित्यनाश या तो नवीन उपनिषद् हैं या हमारा मोक्षधर्मप्रकरण, अपेक्षाकृत प्राचीन काल के लिए नवीन उपनिषद् अपेक्षाकृत अर्वाचीन काल के लिए मोक्षधर्मप्रकरण । नवीन उपनिषदों तथा मोक्षधर्मप्रकरण दोनों में हम सांख्यदर्शन की शब्दावली के माध्यम से ब्रह्मवाद तथा ईश्वरवाद का संमिश्रण पल्लवित होता हुआ पाते हैंनवान उपनिषदों में ईश्वरवाद का पुट लिए हुए ब्रहावाद, मोक्षधर्मप्रकरण में ब्राह्मवाद का पुट लिए हुए ईश्वरवाद । अब सांख्य दर्शन का जो रूप हम ईश्वर कृष्ण को मांख्यकारिका में पाते हैं उसका ब्रह्मवाद-ईश्वरवाद से कोई सम्बन्ध नहीं (तथा ईश्वरवाद का तो उसमें सोधे सीधे खंडन है) और प्रश्न उठता है कि किन परिस्थितियों में नवीन उपनिषदों तथा मोक्षधर्मप्रकरण के रचयिताओं के लिए उस सांख्य दर्शन से सामग्री ग्रहण करना संभव बना होगा जिसका चरम परिणत रूप ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका है। नवीन उपनिषदों में सांख्य दर्शन को शब्दावली का उपयोग है लेकिन स्वयं सांख्य दर्शन के सम्बन्ध में वहां मौन धारण किया गया है । इसके विपरीत मोक्षधर्म प्रकरण में मांख्य दर्शन की शब्दावली का ही उपयोग नहीं वहां स्वयं मांख्य-दर्शन के सम्बन्ध में स्थान स्थान पर उद्गार प्रकट किए गए हैं। वस्तुतः मोक्षधर्मप्रकरण में 'सांख्य' शब्द का (तथा 'अध्यात्म'शब्द का) प्रयोग तत्वज्ञान-सामान्य के अर्थ में हुआ है, और जब अनेकों बार सांस्य तथा योग के बीच भेदप्रदर्शन किया गया है तब आशय यही फलित होता है कि किन्हीं सैद्धान्तिक तर्कणाविशेषों की सहायता से तत्त्वज्ञान प्राप्त करना 'सांख्य है तथा किन्हीं व्यावहारिक-प्रक्रिया-विशेषों की सहायता से लबसाक्षात्कार करना 'योग' है। लेकिन प्रश्न उठता है कि यदि 'सांख्य' शब्द तत्वज्ञान सामान्य का द्योतक है तो वह किसी तत्त्वज्ञान-विशेष का द्योतक कैसे हो सकता है । प्रश्न सचमुच जटिल है और उसका समाधान पाने के लिए हमें नबीन उपनिषदों तथा मोक्षधर्मप्रकरण के युग की सामान्य परिस्थितियों पर दृष्टिपात करना होगा। प्राचीन उपनिषदों के युग का अन्त आते आते याज्ञवल्क्य ने इस सिद्धान्त को अवतारणा कर दी थी कि प्राणि-शरीर का संचालक भूत तत्त्व 'आत्मा' तथा बाह्य जड़ -जगत् संचालक भूत तत्त्व 'ब्रह्म' कथंचित् परस्पर एक रूप हैं