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________________ महोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिसमुच्चितः श्रीपुण्यविजयजी महाराजे, तेमना स्वहस्ते लखायेली अने लेखकना नामोल्लेख विनानी अनेक प्रतिओ निर्णीत करी छे. आवी केटलीक प्रतिओ लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिरमा सुरक्षित मुनि श्री पुण्यविजयजीना संग्रहमां विद्यमान छे उपरांत डद्देलाना उपाश्रय ( अमदावाद, ना ज्ञानभण्डारमां पण वैराग्यरतिग्रन्थ छे. पू० पा० उ० श्रीयशोविजयजी महाराजना हस्ताक्षरनी चकासणीना प्रसंगोमां पू० पा० आगमप्रभाकरजीनी पासे बेसीने जोवा - शीखवानुं सौभाग्य मने अनेक वार प्राप्त थयेलं. आथी ज प्रस्तुत य० संज्ञक प्रतिनी फोटोकॉपी जोईने आल्हाद थयो. उपरांत विशेष स्पष्टता माटे ला० द० विद्यामन्दिरमांना अह जणावेला संग्रहनी पू० पा० उपाध्यायजीए स्वहस्ते लखेली प्रतिओनी साथै प्रस्तुत फोटोकॉपीना अक्षरो मेळवतां सविशेष खात्री थई के आ य० संज्ञकप्रति कर्ताए पोते ज लखेली छे. कुल पांच पत्रमां लखाएली आ प्रतिनुं प्रथम पत्र नष्ट थयुं छे. तेथी प्रारम्भथी द्वितीयशतकना तेरमा लोकना उत्तरार्धना प्रथम अक्षर सुधीनो पाठ मेळवी शकायो नथी. पांचमा पत्रनी बीजी पृष्ठिनी आठमी पंक्तिमा आ कोश पूर्ण थाय छे. प्रत्येक पत्रनी प्रत्येक पृष्टिमां १५ पंक्तिओ छे. प्रत्येक पंक्तिमा ओछामां ओछा ४१ अने वधुमां वधु ५६ अक्षरो छे. संपादन कर्यु छे केटलांक उपर जणावेली बे प्रतिओना आधारे सिद्धनामकोश' नुं स्थानोमां पाठभेदो छे. तेमां मुख्यत्वे ' य०' प्रतिना पाठ मूळमां स्वीकार्या छे. आम छतां कोईक स्थानमा 'जे० ' प्रतिना पाठने पण प्राधान्य आप्युं छे. उ० श्रीयशोविजयजीए, स्वहस्ते लखेली 'वैराग्यरति' नी प्रतिमां एकज स्थानना विकल्परूपे पोते ज योजेला पाठभेद अनेक स्थानोमां लख्या छे. आथी 'जं०' प्रतिमां आवता पाठभेदो कदाच सुगमता माटे पोते ज नोध्या होय तेवी प्रतिना आधारे आ 'जं०' प्रति लखाई होय ए संभवित छे. 'जं०' प्रति कर्ताना सत्तासमयमा ज लखाएली होई तेर्मा अन्यकृत पाठभेद थवानी शक्यता ओछी संभवे ए पण हकीकत छे. 'जं०' प्रति संपूर्ण होवाथी प्रस्तुत कोशनी पूरी वाचना आपे छे. 'य० ' प्रति कर्ताए लखेली छे तथा 'जं०' प्रतिमां आवता कोइक अशुद्ध स्थानमां शुद्ध पाठ आपे छे. आ रीते आ बन्ने प्रतिओनुं आगवुं महत्त्व छे. प्रस्तुत संपादनमां प्रत्येक शब्दनी पछी जे क्रमांक आप्यो छे ते बन्ने प्रतिओमां छे ते प्रमाणे ज छे. सिद्धनामकोश अति प्राचीन समयथी प्रत्येक सम्प्रदायमा पोत- पोताना आराध्य देव - देवीओनी स्तवना रूपे अनेक स्तुति--स्तोत्रो रचायां छे. स्तुति-स्तोत्रोनो एकाग्रताथी पाठ करनारने लौकिक-अलौकिक लाभ अचूक थाय छे. आ हेतुथी प्राचीनतम समयथी अर्वाचीन समय सुधीमां विविध स्तुति - स्तोत्रोनी रचना अने तेनो पाठ करवानी परंपरा सचवाइ रही छे. अनेकविध वस्तुनिरूपण रूपे रचायेलां स्तुति स्तोत्रोमा आराध्य देव-देवीओनां नामोकीर्तनरूपे रचायेलां स्तोत्रो पण ठीक ठीक प्रमाणमां उपलब्ध छे. तेमां य अष्टोत्तरशतनामस्तोत्र अने सहस्रनामस्तोत्रो पण रचायेलां छे. श्रमण-ब्राह्मणपरंपरामां विविध सहस्रनामस्तोत्रो रचायां छे. श्रमणपरंपरा मां - - आचार्य श्री - जिनसेनकृत 'जिनसहस्रनास्तोत्र,' आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिकृत 'अर्हन्नामसहस्रसमुच्चय', आशाघरकृत 'जिनसहस्रनामस्तोत्र' जोवहर्षगणिविरचित ''जनसहस्रनामस्तोत्र, ' पं. संबोधी ४. ३-४
SR No.520754
Book TitleSambodhi 1975 Vol 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1975
Total Pages427
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size30 MB
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