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धर्मसुन्दरकृत
काव्यम् सरङ्गा सारङ्गा सरलकुसुमाली शुचिरसा, दरीदृश्यन्ते च प्रतिदिशमहो गाननिपुणाः । पिकैः साकं चञ्चत्शिखरिशिखरेषु ध्वनिपरै-- वसन्तप्रारम्भे भवति भविनां हर्षनिचयः ॥६॥ पाडल परिमलि रूअडां, . फूलडां जोड आकारि, मदन-तणा किरि ए शिरं, केसर करीय संभारि ॥६२ विहसिय वनि कुसुमाकुल बकुल स-अलिकुल-केलि फागु दिई वर कामिनि, .. काननि मन नइ मेलि ॥६३॥
काव्यम्. . यत्रोच्चैर्नवनाथमन्मथभटस्याग्रेसराः केसरं, पायं पायमपीद्धमत्तमधुपाः संराविणः सत्त्वरम् । धावन्त्युद्धटपद्मिनीपदततिं भूमौ वतीर्णा रयात्. यत्का पुष्पचयं कथं सुमनतां वो वसन्तोत्सवः ॥६४॥
... फाग .... ऋतु-वसंति परिणी, करणी प्रथमारंभि, मंगल कारणि रोहइ, सोहई. कदली-थंभ ॥६५॥ विरहणि-जण-मण दमणु, दमणु. गंध-प्रधान, गुण-निधि गधि गरुउ, मरूउ महिम-निधान ॥६६॥ बालइं विरहि करालीय, बालीय बालीय देह, समरई पथिय निय-मनि, मानिनि वधई नेह ॥६७॥
काव्यं . चारु वेउल-कुली जस दाढ़, . किंसूक-वेलि. धरई तस गाढ, तार पल्लव वहई जसुजी, धूजती कहइ वसंत सुसीह ॥६८॥
फाग सकल सुपरिमल सुपइ, चंपई रितु-वसंत, चदनु सरस सकोमल, . परिमल रभलि करंत ॥६९।। फल-भरि भरीयइ भायण, रायण रंगि रसाल,. वसंत-तणा गुण गहगहिया, महिमहिया वनहिं रसाल ॥७०।।