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धर्मसुन्दरकृत
न नमइं बाहं महाबल, सामलनी सुकुमाल, हरि हीडोलिउ आलिं. ___बालिं बल सुविसाल. ॥३८॥ कंसासुर जिणि रोलिउ, तोलिउ ते भुज-दंडि, बलि छल-करणि वदीतु, जीतु तेह बल-चंडि ।।३९॥ समस्थ सेवइं सूरपति, नरपति नेमि कुमार. चरण -कमलि परिपूजई, कुजई ग जिम सार ॥४०॥ हरि आविय हिव निय-धरि, अवसरि जंपइ प्रेमि, यादवराज अलंकरि, नव परि दाखु नेमि ॥४१॥ वचन अम्हरां आदरि,
सुंदरि परणि-न स्वामि, कइ कहुं कमला-सरसती, राजमती अभिरामि ॥४२॥ सुर-नर-नायक ज्ञानीय, मानी अथिरू संसार, नवि परणइ वरे नारीय, वारीअ पाप-व्यापार ॥४३॥ नेमि न भीजई तरूणीअं. तरूणी लीघई नामि । तुं पुहातु मधु ऋतुपति, रतिपति सि अभिरामि ॥४४॥ . मधु आविइं सवि अंगना, अंगना करई श्रृंगार । करि कंकण पगि नेउर, केउरि पहिरई हार ॥४५॥ बाला गायई अविसरि, अव सरि राग वसंत, वनि वनि खेलई पदमिनि; पदमिणि पदम हसंत ॥४६॥
काव्यं विकसित कमलाली, रंगरेली प्रवाली, तस्तरि वनमाली, दीपती चम्पकाली, कुसुमशर-शराली, केतकी अणीआली, रमिझिमि वरबाली, फूलडो लिइ रसाली ॥४७॥ मलय-पवन वाअई, कोकिला रंग गाअइं, भमर वनि न माअई, उलटी काम धाअई, विरहणि न फिराई, वेगलई प्राण जाअई फलद फलि भरायई, अंगना रंग थाअइं ॥४८॥