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कृष्णकुमार दीक्षित उत्तर पाना असंभव था । इन प्रथों के ये-वे व्याख्याकार अपने स्वतंत्र उहापोह के आधार पर किन्हीं निष्कर्षों पर पहुंचते और बाद में प्रयत्न करते अपने इन नवाविष्कृत निष्कर्षों को इन ग्रन्थों में पढ़ डालने का। इससे इतना ही सिद्ध होता है कि उत्तर काल के व्याख्याकारों की दृष्टि में ये ग्रंथ अगाध श्रद्धा का पात्र बम गए-यह नहीं कि ये ग्रंथ मौलिक महत्व के दार्श निक प्रश्नों का समाधान अपने में सजोए बैठे थे लेकिन युग की अंधी भाखें उस समाधान को पढ़ नहीं पाई थौं । बात यह है कि उपनिषदों तथा ब्रह्मसूत्र की उत्तरकालीन व्याख्यानों के समय तक भारतीय दर्शन के क्षेत्र में मार्के की पर पल्लवित हो चुकी थीं जिनका इन व्याख्याकारों ने अपनी आवश्यकखानुसार उपयोग किया । इस संबन्ध में सब से अधिक ध्यान देने योग्य है गौडपाद तथा शंकर की केवलाद्वैती वेदांत शाखा के द्वारा किया गया शून्यवादी तथा विज्ञानवादी बौद्धों की जगन्मिथ्यात्व-समर्थक युक्तियों का भरपूर उपयोग । वस्तुतः जहां तक दार्शनिक महत्त्व के प्रश्नों का संबंध है बौद्ध मायावाद तथा केवलाद्वैती मायावाद सर्वथा सहोदर मान्यताएं सिद्ध होती हैं। लेकिन यह सोचना अवश्य ही भ्रांति होगी कि प्राचीन तथा नवीन उपनिषदों के शब्द मायावाद का समर्थन करने के उद्देश्य से लिखे गये थे । हुमा केवल इतना है कि मायावादी व्याख्याकारों ने इन शब्दों को अपना मनोनुकूल अर्थ पहना दिया है । मायावाद-विरोधी वेदांत शाखाओं के व्याख्याकारों के अव्यवसाय की दिशा दूसरी थी । स्पष्ट ही उपनिषदों के तथा मापसूत्र के शब्दों की मायावादी व्याख्या उनका अभीष्ट न थी (इस प्रकार की व्याख्या का तो वे बलपूर्वक खण्डन करते ) लेकिन इन शब्दों की विरवादी व्याख्या उनका अभीष्ट अवश्य थी। अब तक के प्रौढ़ दार्शनिक साहित्य में ईश्वरवाद का समर्थन न्याय-वैशेषिक सम्प्रदाय के हाथों हुआ. मा लेकिन इस ईश्वरवाद को ब्रह्मवाद से कुछ लेना देना न था । ऐसी दशा में वेदान्त साहित्य के ईश्वरवादी व्याख्याकार न्यायवैशेषिक संप्रदाय को ईश्वरवादी युक्तियों को ज्यों की त्यो अपनाने की स्थिति में न थेजैसे कि केवलाद्वैतवादी व्याख्याकारों ने बौद्धों की मायावादी युक्तियों को ज्यों का त्यो अपना लिया था। फल यह हुमा की इन ईश्वरवादी व्याख्याकारों को ब्रह्मवाद तथा ईश्वरवाद के बीच संगति बैठाने का काम मुख्यतः अपने हाथों करना पड़ता और उनके अपने हाथ पर्याप्त दुर्बल थे । वस्तुतः