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________________ नवोन उपनिषदों की दार्शनिक चर्चा के सिद्धान्त के साथ कैसे बैठायेगा। क्योंकि उसे समझना यह पड़ेगा कि पुनर्जन्मचक्र में फंसने वाली इस उस व्यक्ति की आत्मा वस्तुतः ब्रह्मरूप हैं, और इस प्रकार की कोई बात प्रस्तुत प्रसग में यम के मुख से नहीं कहलाई गई है। फिर यहां कहा जा रहा है: "इन्द्रियों से परे अर्थ हैं, अर्थ से परे मन, मन से परे बुद्धि, बुद्धि से परे महान् आत्मा, महान् से परे अव्यक्त, अव्यक्त से परे पुरुष, पुरुष से परे कुछ नहीं" । और प्रश्न उठता है कि यहां प्रयुक्त हुए 'मन' 'बुद्धि' 'महान्-आत्मा' 'भव्यक्त' 'पुरुष' आदि शब्दों से कठोपनिषत्कार का क्या आशय हो सकता है । वस्तुतः यह समूची शब्दावली सांख्य वर्तुलों में हुई दार्शनिक चर्चाओं के प्रसंग में गढ़ी गई थी और उसे ज्यों की त्यो अपनाकर कठोपनिषत्कार ने सिद्धकर दिया कि इस प्रसंग में कोई मौलिक बात उन्हें नहीं "कहनी । इसी प्रकार जब श्वेताश्वतर में कहा गयाः “मायां तु प्रकृति विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् । तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् " ४. ९. तब प्रश्न उठता है कि प्रकृति से यहाँ क्या आशय । 'प्रकृति' सम्बन्धी मान्यता भी एक ऐसी मान्यता थी जिसका प्रतिपादन सांख्य वर्तुओं में हुआ था और उसे ज्यों की 'त्यो अपनाकर श्वेताश्वतर कार ने सिद्ध कर दिया कि इस प्रसंग' में कोई मौलिक बात उन्हें नहीं कहनी । कहा जा सकता है कि इस प्रसंग मैं' 'महेश्वर', 'माया' 'महेश्वर के अवयवरूपभूनों द्वारा जगत् की व्याप्ति' की मान्यताएं श्वेताश्वतरकार की अपनी मौलिक हैं । बात एक सीमा तक सच है लेकिन इन मौलिक मान्यताओं का भी ठीक आशय क्या है यह स्पष्ट नहीं हो पाता-न समूचे श्वेताश्वतर को पढ़ कर न समूचे नवीन उपनिषदों को पढ़कर । ये दृष्टान्त यह सिद्ध करने के लिये पर्याप्त होंगे कि शरीर, जड़ जगत्, आत्मा, ब्रह्म, आत्म-बौक्य, ईश्वर आदि से संबन्धित प्रश्नों के प्रसंग में जिस प्रकार के मौलिक ऊहापोहों की आशा युग कर रहा था वैसे ऊहापोह नवीन उपनिषद् उसे न दे सके । यही कारण था कि ये उपनिषद् तथा उन पर आधारित ब्रह्मसूत्र लम्बे समय तक प्रौढ़ दार्शनिक वर्तुलों की दृष्टि में उपेक्षित बने रहे । और जब गौडपाद तथा शंकर ने उपनिषदों तथा ब्रह्मसूत्र के गंभीर अध्ययन की परम्परा का सूत्रपात किया तब भी यही सिद्ध हुआ कि मौलिक नहत्त्व के दार्शनिक प्रश्नों पर इन ग्रन्थों से निःसदिग्ध कुछ
SR No.520753
Book TitleSambodhi 1974 Vol 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1974
Total Pages397
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size11 MB
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