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कृष्णकुमार दीक्षित है, लेकिन श्वेताश्वतर जैसे विशालकाय तथा प्रौढ़ उपनिषद् में भी नहीं पद-पद पर ईश्वर का उल्लेख है इस प्रश्न का स्पष्टीकरण नहीं होता है कि ईश्वर तथा ब्रह्म के बीच ठीक संबंध क्या है। मुण्डकोपनिषद् का प्रश्न है। "कस्मिन्नु विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति ॥ १.१. ३ उत्तर में वर्णन किया गया है ब्रह्म से विश्व की उत्पत्ति की प्रक्रिया का (यह बताने के लिए कि एक ब्रह्म के जानने से सब कुछ जान लिया जाता है); वर्णन के शब्द हैं "यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च यथा पृथिव्यामोषधयः सभवन्ति । यथा सतः पुरुषात् केशलोमानि तथाक्षरात् संभवतीह विश्वम् ।।" १.१.७ । इस उपमाओं की भाषा से इस प्रश्न पर विशेष प्रकाश नहीं पड़ता कि ब्रह्म का जगत् से ठीक क्या संबन्ध है-और परिस्थिति और भी अधिक जटिल बन जाती है यदि इस प्रश्न में यह प्रश्न भी जोड़ दिय जाए कि ब्रह्म से विश्व की उत्पत्ति की इस प्रक्रिया में ईश्वर की भूमिका क्या । कठोपनिषद का प्रश्न नचिकेता द्वारा यम को सबोधित करके की गई निम्नलिखित प्रार्थना में प्रस्तुत किया गया है।
येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके । एतद्विथामनुशिष्टस्त्वयाम-॥ १.१.२० । उत्तर में यम ने जो कुछ कहा उसमें से सारभूत वक्तव्य निम्नलिखित है:
न संपरायः प्रतिभाति बालं प्रमाधन्तं वित्तमोहेन मूढम् । मयं लोको नास्ति पर इति मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे ॥
मात्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु । बुद्धि तु सारथिं विद्धि मनः प्राहमेव च ॥ इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियमनोयुक्त भोकेत्याहुर्मनीषिणः ॥ इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्थी अथम्येश्च परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः ।। महतः परमव्यकमव्यक्तात्पुरुषः परः ।
पुरुषान्न परं किंचित् सा काष्ठा सा परा गतिः ॥ १।३।१०-११
यम के उत्तर का प्रारंभिक भाग प्रायः प्रत्येक आत्मवादी-पुनर्जन्मवादी दार्शनिक द्वारा दुहराया जा सकेगा, उनके उत्तर का शेषभाग सांख्यशब्दावली से परिचित एक ऐसे दार्शनिक द्वारा। लेकिन प्रश्न है कि याज्ञवल्क्य का एक अनुयायो इन सब बातों को संगति अपने आत्म-ब्रह्मैक्य