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नवीन उपनिषद की दार्शनिक चर्चा
का सारस्वरूप समझा था और इन ईश्वरवादी धर्मशास्त्रीय वर्तुलों का प्रभाव भी नवीन उपनिषदो में स्पष्ट रूप से लक्षित होता है । नवोन उपनिषदों की दार्शनिक चर्चा का मूल्यांकन करते समय इस समूची पृष्ठभूमि से अवगत रहना आवश्यक है क्योंकि तभी हम समझ सकेंगे कि यह ग्रन्थराशि दार्शनिकता की दृष्टि से अपेक्षाकृत दरिद्र क्यों । बात यह है कि नवीन उपनिषदों के पाठक वर्ग की अमिरुचि का विषय एकमात्र दार्शनिक प्रश्न न थे बल्कि योगशास्त्रीय तथा धर्मशास्त्रीय प्रश्न भी थे । दर्शनशास्त्र के विद्यार्थियों के निकट यह परिस्थिति ध्यान देने योग्य इसलिए बन जाती है कि नवीन उपनिषदों का युग वह युग था जब देश में ही नहीं स्वयं ब्राह्मण परम्परा में ऐसे वर्तुलों का उदय हो रहा था जिनको अभिरुचि का एकमात्र विषय दर्शनशास्त्रीय प्रश्न थे । ब्राह्मण-परम्परा के प्राचीनतम दार्शनिक वर्तुल थे सांख्यवर्तुल तथा बाद में क्रमशः उदित होनेवाले वर्तुलों में आते हैं मीमांसा, वैशेषिक एवं न्याय वर्तुल; और सांख्य, मोमांसा , वैशेषिक तथा न्याय सप्रदायों ने भारतीय दर्शन के इतिहास में कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है यह तज्ज्ञों को अविदित नहीं । प्रश्न उठता है कि वेदान्त संप्रदाय की ऐतिहासिक भूमिका उक्त संप्रदायों की तुलना में नगण्य क्यों ? प्रश्न का आशय ठीक से समझ लेना आवश्यक है । वेदान्त संप्रदाय प्राचीन-नवीन उपनिषदो पर अवलम्बित एक दार्शनिक संप्रदाय है जिसका आदिम सूत्र ग्रन्थ बादरायण का 'ब्रह्मसूत्र' है। लेकिन भारतीय दार्शनिकों की प्राचीन चर्चाओं में वेदान्त-मान्यताओं का उल्लेख नहीं के बराबर हुआ है। इतना ही नहीं स्वये वेदान्त सप्रदाय के नाना संप्रदायों में से किसी के पास प्राचीन काल का अपना कोई दार्शनिक ग्रन्थ नहीं (इस सम्बन्ध में प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ हैं गौडपाद की मांण्डूक्यकारिका तथा शंकराचार्य के ब्रह्मसूत्र आदि पर भाष्य) और प्रश्न है कि यह परिस्थिति क्यों बनी। ध्यान देने पर इसका कारण यही प्रतीत होता है कि नवीन उपनिषदों के युग में एक दार्शनिक ग्रन्थ से जो आशा रखो जाती थी उस आशा को पूरा करने की स्थिति में ये उपनिषद् न थे। निःसन्देह ये उपनिषद् प्राचीन उपनिषदों की तुलना में कहीं अधिक व्यवस्थाबद्ध हैं (प्रायः प्रत्येक में एक या एकाधिक सुनिश्चित प्रश्न उठाकर सुनिश्चित उत्तर देने का प्रयत्न किया गया है) और उनकी तार्किकता भी प्राचीन उपनिषदों को तुलना में पर्याप्त विकसित है । लेकिन जितनी व्यवस्थाबद्धता तथा जितनी ताहिकता का तकाजा युग कर रहा था उतनी