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कृष्णकुमार दीक्षित
थी जब आत्मा का सिद्धान्त स्वीकृत न था, एक मंजिल जब ब्रह्म का सिद्धान्त स्वीकृत न था, एक मंजिल जब आत्मा तथा ब्रह्म की एकरूपता का सिद्धान्त स्वीकृत न था । याज्ञवल्क्य में ये तीनों सिद्धान्त स्वीकृत हैं, लेकिन ध्यान देने की बात है कि याज्ञवल्क्य ने अपने मत की स्थापना तर्कपुरःसर नहीं की । कहने का आशय यह नहीं कि याज्ञवल्क्य के तर्क आज के युग के पाठकों की दृष्टि में त्रुटिपूर्ण सिद्ध होंगे बल्कि यह कि याज्ञवल्क्य में आत्मा, ग्रम तथा उनकी परस्पर एकरूपता को तत्वतः सगम्य न मानकर तत्त्वत: अनुभूतिगम्य माना और यहाँ अनुभूति से ततः आदाय है सुषुमिकालीन अनुभूति से । प्राचीन उपनिषदों के तत्कालवाद का में जड़-चेतन जगत के स्वरूप पर तर्कपुरःसर विचार करने की परम्परा पस्कषित हुई नवस्थापित सांख्य- वर्तुलों में और इस सम्बन्ध में सांख्य विचारक अपने किन्हीं विशिष्ट निष्कर्षो पर पहुँचे । इन निष्कर्षो में ब्रह्म की मान्यता के लिए कोई अवकाश न था, जड़ जगत के मूल रूप में 'प्रधान' अथवा 'प्रकृति' नाम वाले एक समय की कल्पना थी, सामान्यतः चेतन माने जाने वाले व्यापारों को प्रकृतिजन्य तत्वों का व्यापार माना गया था लेकिन स्वयं चैतन्य को 'पुरुष' नाम वाले बहुसंख्यक तरवों का सार-स्वरूप घोषित किया गया था, आदि आदि । सांख्य विचारकों के इन निष्कर्षो की तथा इससे भी अधिक उनकी तर्कपुरस्सर विचारणा शैली की उपेक्षा करना याज्ञवल्क्य की परम्परा के अनुयायियों को भी संभव न सिद्ध हुआ और नवीन उपनिषदों में मुख्य रूप से अभिव्यक्ति पा रही है वहीं परिस्थिति । प्राचीन उपनिषदों के तत्कालबादवाले युग में एक अन्य प्रवृत्ति ने मी बल पकड़ा और वह थी समाधि की सहायता से तत्त्वसाक्षात्कार का दया करने की प्रवृत्ति | इस प्रवृत्ति के पुरस्कनी वर्तुलों को सामन्यतः योगवर्तुल कहा जा सकता है और नवीन उपनिषदों में स्पष्ट रूप से प्रकट होने वाला एक प्रभाव इन वर्तुलों का प्रभाव भी है। वस्तुतः सुषुमिकालीन अनुभव को तत्त्वसाक्षात्कार का साधन मानने वा याज्ञवल्क्यीय सिद्धान्त की अच्छी सगति बैठ जाती है योग बलों द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धान्त से कि तत्त्वसाक्षात्कार का साधन समाधिकालोग अनुभव है। प्राचीन उपनिषदों के तत्कालबादवाडे युग में क्रमशः बलवती बनवा लो एक तीसरी प्रवृत्ति की ओर भी ध्यान देना आवश्यक है और वह है ईश्वरबाकी प्रकृति | इस प्रवृत्ति का पल्लवन उन धर्मशास्त्राय वर्तुलों में हुआ था जिन्होंने जगत के कर्ता, धर्ता, संहर्ता रूप में कल्पित ईश्वर को उपासना को धार्मिकता