________________ गीता और कालिदास 23 सन्दरम को स्वप्न में भी प्राप्त नहीं कर सकते। साकार शिव निराकार में परिणत हए। पार्वती को तपाचरण की आवश्यकता हुई / गीतानुसार तप मनीषिओं को पवित्र करता है।181 मनस्वी पार्वती के पशुपति प्राप्त करनेवाले प्रयत्नो में नरकद्वार के समान काम के स्थान पर पवित्र और सात्त्विक तप पदार्पण करता है। परिणामत पार्वती की दृष्टि मूलत. परिवर्तित होती है। ज्ञानी को ज्ञान प्राप्त होता है तब व्यवहार नहीं परन्तु आचार परिवर्तित होता है। गीता भी पडिता 'समदर्शिन ' कहती हैं, समवर्तिन नहीं।15। पहले पार्वती आत्मरूप बनकर, वसंत के शृंगार सज कर, शिववंदन के लिए जाती है। यहां कामान्धता और स्वार्थान्धता की गन्ध आती है। शिव-तपोवन के प्राणीमात्र को वह भूल गई किन्तु तप के समय उनका व्यवहार आमूल परिवर्तित हुआ। शिव, मांगल्य अथवा सत्य की आकांक्षा करने वाला मानव कामाक्षी नहीं शिवाक्षी होना चाहिए। तपपूत पार्वती में कल्याण कामनाएँ आविर्भूत हुई। वृक्ष की ओर वात्सल्य का जन्म हुआ जो कार्तिकेय द्वारा भी दूर न हो सका। हिरण की तरफ प्रेम के झरने बहने लगे। जो लताएँ कुसुम से स्वयं विलसित होती थी उनमें स्वविलासचेष्टा अमानत के रूप में रखी। स्वमुखकमल से सरोवर में शतदल की शोभा अर्पित की। विरही चक्रवाक के प्रति सहानुभूति दोई। पार्वती के मन में समग्र जड़ और चेतन सृष्टि के प्रति प्रेम-बात्सल्य और सद्भाव की त्रिवेणी बहने लगी। कहाँ स्व से अभिभूत शैलसुता और कहाँ 'सर्व' में सर्भाव समर्पित पार्वती ?|| बह-शिव की-मांगल्य की प्रेम की शोध करने लगी। जह, चेतन समग्र सृष्टि में शिव देखने लगी। ईश्वर का सर्वत्र दर्शन करने लगी, गीता की 'यो मां पश्यति सर्वत्र 186 की भावना साकार हुई। परिणामतः निराकार शिव साकार बने। परमेश्वर पार्वती के प्रेमपार्थी होकर पधारे। धर्म से अविरोधी काम और सर्वत्र ईश्वर दर्शन की, गीता अभिप्रेत भावना कुमारसंभव में पार्षनी के चरित्र में चरितार्थ हुई दिखाई देती है। पावटीप * यहाँ कालिदास की कृतियों के सदर्भ मीताराम चतुर्वेदी संपादित 'कालिदास ग्रन्थावली' मे मे दिये है। 1 खु. 1-5 मे 8. 2 गीता 13-1. 3 खु 1-214 स्यु. 3-51. 5 गीता 18-13 6 गीता 12-15. 7 खु. 4-12. 8-10 9 गीता 9-11: 8-6. ___10 रघु.८-२०. 11 गीता 4-37 मल्लिनाथ मी टीका मे इस श्लोकका अवतरण देते हैं। 12 गीता 14-28, 6-8. 13 3-5, 13-1913-21. 14 ग्चु. 8-22-24 15 गीता 13-17, 11-17; 15-11. 16 खु. 8-15. 17 गीता 6.1 18-40 18 खु. 8-10 खो दिलीप. खु.१-३८. कुश. खु. 16-8 भतिषि. रघु. 17-4 वेवलोक है। स्थु 18-13. सुदर्शन 19-1. तुष्यत-शाकु. 5-8, गीता में 'वशी' -13 में वेखो। 19 बक्षारय रघु. 9-1. मतिथि 17-43. 20 खु. 8-2, 21 रघु 9-1, 9-8.