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गीता और कालिदास
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रजोगुण की वृद्धि से विद्वान भी अयोग्य मार्ग पर पदार्पण करता है। 'अपथे पदमर्पयन्ति हि श्रुतवन्तोऽपि रजोनिमीरिता ॥118 इसलिए प्राय राम ने 'रजोरिक्तमना' होकर राज्य किया होगा । मनुष्य में तमोगुण अतिमात्रा में हो जाय तो उसकी दशा का वर्णन गोता में है। इसका उदाहरण रघुवश का अग्निवर्ण राजा है । वह दोष को देख कर भी त्याग नहीं सकता था । दृष्टदोषमपि तन्न सोऽत्यजत् 1 1 1 + गीता भी कहती है कि मनुज्य की बुद्धि तामसी हो जाय तो सभी बातें विरुद्ध लगती हैं । अधर्म को भी वे धर्म मानते हैं ।
अधर्म धर्ममिति या मन्यते तमसावृता । सर्वार्थाविपरीत बुद्धि सा पार्थ तामसी || 115
तमोगुण की प्रबलवृत्ति का काव्यमय वर्णन कालिदास ने शाकुन्तल में किया है। प्रबलतम सामेवंप्राया शुभेषु हि वृत्तय ।
जमपि शिरस्यन्ध क्षिप्तां धुनोत्यहिशङ्कया || 110
प्रबल तमोगुणयुक्त मानव प्राय अच्छी बातों में भी बुरी वृत्तियुक्त होते हैं। सिर पर पुष्पमाला डाले तो भी सर्प की शंका से सिर घुमाते हैं। इसको सधान विपरीतान का काव्यमय स्पष्टीकरण ही कहेंगे न । उच्छिष्ट, अपवित्र भोजन तामसी को अच्छा लगता है । 117 अग्निवर्ण प्रमदाओं का उच्छिष्ट मुखमधु के आस्वादन से आनंद मानता था । 1 18
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मुक्तमार्ग
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मनुष्य कर्मानुसार गति प्राप्त करता है । कालिदासानुसार शुभकर्म का फल शुभ होता है । शकुन्तला योग्य वर सुकृत से प्राप्त करती है ।" पूर्वजन्म के पवित्र और फलोन्मुख तप के फल को तपस्वी भोगते हैं। मनुष्य स्वकर्म से परलोक में भिन्नभिन्न गति प्राप्त करते हैं । 181 कामदेवने ब्रह्मा के मन में पुत्री के लिए कामना की, परिणामतः उनको भस्मीभूत होना पडा । 188 कर्मानुसार गति का गीता मान्य सिद्धांत कालिदास की कृतिओं में अनेक स्थलों पर दिखाई देता है । शुभ कर्म द्वारा मनुष्य स्वर्ग प्राप्त करता है और कर्मफल क्षीण होने से पृथ्वी पर आना पड़ता है । 184 यह गीताकथित 128 विधान कालिदास अनेक बार स्वीकृत करते है। गीता मे यज्ञ इत्यादि शुभ कर्मों के फलस्वरूप स्वर्ग का निर्देश है किन्तु वैकुण्ठ का निर्देश नहीं । स्वाभाविकतया मनुष्य पुनर्जन्म और कलेश भय से मुक्तिमार्ग का आश्रय लेता है । 120 मुमुक्षु कर्मबन्धनछेदक धर्म की आकांक्षा करता है । 187 इन्द्रियनिग्रह से रघु सिद्धि प्राप्त करता है | 128
गीता में इन्द्रियनिग्रह अथवा वशी की प्रशंसा योगी और भक्त के माध्यम द्वारा की गई है । 120 केवल स्मरण से भक्ति से मुक्ति मिलती है । 130 समदर्शित योगसमाधि से रघु तम से पर अव्यय को प्राप्त करते है । 181 गीता योगसिद्धि का स्वीकार करती हैं । परमपद तम से पर और अव्यय है ऐसा सुस्पष्ट निर्देश गीता में है 1 1 82