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गीता और कालिदास
कालिदास गुरुमुख द्वारा अज को 'वशिनामुत्तम' कहलाता है। कालिदास को 'वशी' शब्द अत्यंत प्रिय है क्योंकि अनेक राजाओं के लिए यह शब्द प्रयुक्त किया है।18 संभवत. स्वयं कवि ही 'वशिनामुत्तम' होगा। उनके अनेक नायक जितेन्द्रिय मी वर्णित हैं।19 "अनग्निं नैष्ठिकं विधि' पृथ्वी का स्वीकार अज पिता की आज्ञा से करता है, भोगतृष्णा से नहीं ।३० दशरथ समाधि से जितेन्द्रिय बने । उसमें इन्द्र समक्ष भी कृपणता नहीं, परिहास में भी असत्य नहीं और दुश्मनो की और भी वे परुषाक्षरवाग नहीं। 1 यहां दशरथ राजा में गीता के वाङ्मयतप का सर्वथा पालन स्पष्ट प्रतीत होता है । गीता अनुद्वेग, सत्य, प्रिय, हितकारी वाक्य तथा स्वाध्याय
और अभ्यास को वागूतप के रूप में आलेखित करती है। राम में गीता के समत्वयोग की झलक पराकाष्ठा को पहूँची । अभिषेक के समय मंगलमय वस धारण करते और जंगल में जाते समय वल्कले धारण करते उनके मख पर जनता विस्मयपर्वक अस्खलित आनन्द देखती है। राम को गीता के अनुसार स्थितप्रज्ञ ही कहना होगा क्यों कि वे दुःख में अन्-उद्विग्न और सुख में स्पृहारहित है। उन्हें शुभ और अशुभ से अनुक्रमसे प्रसन्नता और देष भी नहीं। सुख-दुःख, लाभालाभ, जयपराजय, सबमें समभावी राम समत्वयोगी है। 4 सीतात्याग की द्विधा में दोलाचलवृत्तियुक्त राम को कालिदास ने इन्द्रियार्थ ही नहीं खदेहार्थ से भी स्पृहारहित कहा है। आगमापायी, अनित्य, संस्पर्शयुक्त भोगों से परे राम को कालिदास ने गीता के शब्दों में 'बुधः' सिद्ध किया है। सीता त्याग के पीछे धीमान् वर्णाश्रम के जागरुक राम रजोगुण से पर होकर राज्यशासन करते हैं। यहां गीता की लोकसंग्रह और कर्मयोग की भावना राम के चरित्र में चरितार्थ दिखाई देती है। भरत राज्यतृष्णापराडू-मुख है।० लव और कुश वीतस्पृह, वशी, परस्त्रीविमुखवृत्ति और पुष्पाभरणों को समान मानने वाले धीर हैं। कर्मयोगी, भक्त और त्रिगुणातीत मानवों के मन की समानता का गुण मी उसमें है। राजा अतिथि में दर्द के कारण वपु, रूप, विभूति इत्यादि प्रत्येक गुण थे, किन्तु उनका मन उन्मत्त नहीं हुआ। आंतरिक षड् शत्रुओं पर उन्होंने विजय प्राप्त की। निषध सागरधीरचेता और नल धर्मात्मा थे। इस प्रकार परिशीलन करने से ज्ञात होता है कि रघुवंश के अनेक राजाओं के जीवन में गीता के सिद्धांत और गुणों का आविर्भाव हुआ है।
दुष्यंत वशी और, परस्त्रीपरा'मुखवृत्तियुक्त है।३० गीता में प्रदर्शित प्राणीमात्र के साथ मित्रता की भावना दुष्यंत में विरहकाल में भी है। यह ध्यान देने योग्य सच्चाई है कि सर्व भूतों के साथ द्वेषहीन मित्र, सकरुण, निर्मम और निरइंकारी भक्त भगवान को प्रिय है।1 कर्मयोग
गीता के कर्मयोग जैसे सिद्धांत कालिदास की कृतिओं में स्वाभाविक रूप से आलेखित है। सहज कर्म दोष से युक्त हो तो भी त्यागना नहीं चाहिए क्योंकि प्रत्येक कर्म धूम्र से युक्त अग्नि की तरह दोषयुक्त होता है।