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गौतम पटेल
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" यम्मान्नोद्विजते लोक " का सिद्धांत रघु के जीवन में चरितार्थ हुआ है। कालिदास के शब्दों में राजा प्रकृतिरम्जनात्'' है। अपने सुयोग्य पुत्र अज को गद्दी पर सुप्रतिष्ठित करके स्वर्ग के भी विनाशधर्मी विषयों में आत्मवित् राजा रघु स्पृहारहित रहे। स्वर्ग और उनके सुख भणिक है-ऐसा गीता भी कहती है। राज्य को छोड़ कर कुलपरंपरानुसार वल्कल धारण कर के रघुराजा पुत्र की विनंती से वन में नहीं मगर नगर बाहर जा कर रहे। अविकृतेन्द्रिय , प्रशमस्थित , यतिलिङ्गधारी और अपवर्गार्थी राजा रघु धर्म के अंशावतार के रूप में शोभायमान हुए । 'अनपायिपदोपलब्धये' रघ योगिओं के साथ रहे, समाधि और अभ्यास द्वारा शरीर के पंचप्राणों को वश में कर के ज्ञानाग्नि से स्वकर्मों को भस्मीभूत करने का विचार किया-'अपरो दहने स्वकर्मणां ववृते ज्ञानमयन वहिनना ।10 यहां गीता के ज्ञान की यशोगाथा का गान करता हुआ लोक स्मृतिपट पर प्रतिबिंबित होता है।
यथैधासि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा ।।11 ज्ञानाग्नि मे स्वकर्मो का दहन कर के, रघु त्रिगुणातीत वनकर 'समलोष्टकाञ्चन' बना । " रघुरप्यजयगुणत्रयं प्रकृतिस्थं समलोष्टकाञ्चनः।" यहां इस स्थल में तो ऐसा प्रतीत होता है कि कालिदास गीता के विचारो के उपरान्त भाषाशैली का भी अनुसरण करते हैं। और गीता के शब्दों में लोष्ट और अम दो शब्दो में से केवल अश्म को रखा। मानों उनको वह पुनरावर्तन अकाव्यमय लगा हो। गीता के गुणत्रय निभागयोग (अ.१४) में त्रिगुणातीत के लक्षण दिखाते हुए भगवान 'समलोष्टाश्मकाञ्चन '18 शब्द प्रयुक्त करते हैं। इन शब्दों को छंद की आवश्यकतानुसार बदलकर, 'अश्म' शब्द की पुन उक्ति दूर करके, कालिदास रघुवंश में प्रयोजित करते हैं। इस पंक्ति में गुणत्रय को 'प्रकृतिस्थ' कहा है-यह गीता में अनेक बार निर्दिष्ट हुआ है।15
परमात्मा का जब तक दर्शन न हुआ तब तक स्थिरधी रघु योगविधि में से विरक्त नहीं हुए और तम से पर अव्यय ऐसे पुरुष का योगसमाधि द्वारा साक्षात्कार जव समदर्शी रघुने किया तब वह योग विधि से विरक्त हुआ।14 यहां स्थिरघी शब्दप्रयोग गीता के 'स्थितप्रज्ञ' की याद दिलाता है। परमपुरुप तमस पर अव्यय है और इसे समदर्शी बन कर योगसमाधि से प्राप्त किया जा सकता है। यह गीता का सर्वमान्य सिद्धात है।18 रघुराजा के अंत्येष्टिकर्म में भी अज ने गीता में निर्देशित एक सिद्धांत का उल्लेख किया है। " विवध विधिमस्य नैष्ठिक यतिमि सार्धमनग्नि मग्निचित् '110 अग्निहोत्री अज ने रघु का अग्निरहित अंत्येष्टिसंस्कार यतिओं के साथ किया। रघु संन्यासी था इसलिए अग्नि को स्पर्श नहीं करता था अत उसका "अनग्नि नैष्ठिकं विधि" करना पडा। गीता में भी संन्यासी को 'अन्--अग्निम्' कहा है, मगर सच्चा संन्यासी तो कर्मफलत्यागी ही है। चरित्रनायक रघु के जीवन में गीता के आदर्श और विचारधाराएं कालिदास ने विष्णु के अवताररूप राम के जीवन से भी विशिष्टरूप से मूर्तिमंत की है।