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गीता और कालिदास
गौतम पटेल
लोकप्रचलित दंतकथा के अनुसार महाकवि कालिदास कालीमाता की कृपा से मूर्ख होते हुए भी विद्वान बने, किन्तु उनके द्वारा रचित साहित्य का परिशीलन करने वाले अनेक विद्वान निश्चयपूर्वक इस निष्कर्ष पर आये कि कालिदास को समकालीन ज्ञान की प्रचलित सभी शाखाओं का महत्तम तलस्पर्शी अभ्यास था। उन्होंने महाभारत का सामान्यरुप से एवं गीता का सविशेषरूप से अभ्यास किया था यह गीता
और उनकी कृतियों के सूक्ष्म अवलोकन द्वारा ज्ञात होता है। इस सिद्धांतकल्पना की समर्थना करने का प्रयत्न इस गवेपणात्मक लेख में किया गया है। रघुवंश के राजाओं के गुण
रघुवंश के आरंभ में रघुवंश के राजाओं का गुणवर्णन विस्तृतरूप से कालिदास ने दिया है। गीता के १६ वें अध्याय में निरूपित देवीसंपत्ति के कतिपय गुणों का स्पष्ट निर्देश है। उदा० ... आजन्मशुद्धानाम्' में शुचि-पवित्रता, 'यथाविधिहुतानाम्' में यज्ञ, 'यथाकामार्चितार्थिनाम्' में दान और 'शैशवेऽभ्यस्तविद्यानाम् में स्वाध्याय जैसे दैवीगुणों का सुस्पष्ट आलेखन हुआ है।
रघुवंश के व्यक्तिगत राजाओं के चरित्र में वैषी संपत्ति का दर्शन सरलरूप से होता है। गौरक्षा के लिए पंचभौतिकपिंडरूप स्वदेह की ओर अनास्था प्रदर्शित करने वाला दिलीप जगत के अकातपत्र प्रभुत्व को भी दाँव में लगाता है। यहां गीता के 'असक्तिरनभिष्वङ्ग पुत्रदारगृहादिषु शब्द याद आते हैं। दिलीप ने अनातुर रहकर धर्म का पालन किया और अनासक्त बन कर सुख का उपभोग किया । क्या ऐसा नहीं प्रतीत होता कि यहां गीता की अनासक्तयोग की भावना उनके जीवन में सार्थक हुई है ? रघु का चरित्र उनको समग्रवंश के नायक बनाने के लिए पर्याप्त है। देवराज इन्द्र भी कहते है कि 'गृहाण शस्वं यदि सर्ग एष ते । इस नृप में गीता के क्षत्रिय के स्वाभाविक गुण मूर्तिमंत होते है।
"शौर्य तेजो धूतिय युधे चाप्यपलायनम् । दानमीश्वरभावश्च क्षाकर्म स्वभावजम् ।" इस लोक का पूर्वार्ध इन्द्र के साथ युद्ध में और उत्तरार्ध कौत्सप्रसंग में रघु के जीवन में चरितार्थ होता हुआ दिखाई पड़ता है। रघु के लिए कालिदास ने 'दक्षिण, लुब्धप्रशमन, रवस्थ, प्रसादसमुख...' जैसे शब्द प्रयुक्त किये हैं। जिसके पर्याय गुण के रूप में गीता में मिलते हैं।