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श्रीजिनप्रभसूरिविरचित अपभ्रंश संधिद्वय छुह-तन्ह-पराभव-दुह-विचित्ति, हा हा अणाह संसार-गुत्ति । देविंद-विंद-बंदिय-जिणिंद, पय मुत्तु नाहु न हवइ नरिंद ॥११॥ विविहाहि-त्राहि-विनडियह मरणु. धम्मह विणु होइ न कोइ सरणु । धण-सयण-रूव-जोवणसणाहु, इय मुणउं नरावि मं अणाहु ॥१२॥
एवं मई जाणिउ, मणु समि आणि उ, संग-विमुक्कु विवेअ-जुउ । पडिवज्जिउ संजमु, नो-इंदिय-दमु, तउ अप्प-परह वि नाहु ल्हउ ॥१३॥ ॥१॥
(कडवक-२) अणाहया अवर वि जाण राय, जह भणइ जिणावि वीयराय । फवज्ज पवज्जिय जेण वज्ज, तव चरण-करण न हवंति सज्ज ॥१॥ मोहंधयार-निउरंब-छूढ, जड-जोगि भवाडवि-मग्ग-मूढ । दुह-बंध-बद्ध तिहुअणु भमंति, न हु रोग-दोसवसि वीसमंति ॥२॥ तिहिं दंडिहिं दंडिय अप्पु जाहं, तिहि सल्लिहिं सल्लिय सुहु न ताहं । ति-विराहणाहिं बोहिं हणंनि, निग्गारव-गुरु भवु उवचिणंति ।।३।। किं कुणइ नाणु तबु झाणु दाणु, जे लिंति अणेसणु भत्तपाणु । अह काय-कडाइय वसहि वत्थ, तह होइ तह च्चिय भव अवत्थ ॥४॥ जे आगम-सत्थ-निउत्त सत्थ, तस्सऽन्नह करणि अणत्थ सत्थ ।। जे सुत्त-चज्झ-देसण कुणंति, अप्पं पि अप्पु न हु ते मुणंति ।।५।। बहु-पाव-पवंचिहिं वंचियाण, किं कुणइ ताण जिणनाह-आण । अइ वल्लह वरि मुंचंति पाण, न कहिं चि पवज्जई जिणह आण ॥६॥ जे विसय-कसाय-पमाय-पत्त, न हु मोह-महन्नव-पार-पत्त । अप्पाभिप्पायहिं संचरंति, अप्पणमवि परमवि कुगई निति ॥७॥ अणाहया ताहं वि दिक्खियाण, सया वि सुगुरूहि असि क्खियाण । जे माइठाणऽणुद्वाण ठंति, बोरिय-आयारि न उज्जमंति ॥८॥ मोह-निव-नडिय अणाह हुंति, मगहाहिव ते सवि कुगई जति । एवं अणाह जिय सव्व लोइ, सिरि-जिणवरिंद-आणा-विओइ ॥९॥ जं जिणवरिंद आणा पहाण, सग्गापवग्ग-गइ सुह-निहाण । इय मुणिय नराहिव भव-अवाय, सिरि-वीयराय अणुसरसु पाय ॥१०॥ मह विहसिउ सेणिउ नरवरिंदु, तं सव्वु सच्चु जइ कहइ मुणिंदु । ति-पयाहिण वंदिउ भाव-जुत्तु, संतेउरु निवु निय-ठाण पत्तु ॥११॥