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पं अमृतलाल भोजक है । कुवलयमालाकथा की सूचित गाथा का 'बुह्यणसहस्सदइयं' यह प्रथम चरण
और चतुर्थ चरण में आया हुआ 'विमलपय' यह दोनों विशेषण वैदिककविके और इन्होंने रचे हुये हरिवंशग्रन्थ के हैं, यह बात निःसन्देह माननी चाहिए । फलतः कुवल्यमालाकथा की सूचित गाथा में जो 'हरिवरिसं' और 'हरिवंसं' ऐसे दो पाठ मिलते हैं इन में 'हरिवंसं पाठ को मौलिक मानना चाहिए । यहाँ चेव शब्द *इव' के अर्थ में अर्थात् उपमार्थ है । प्राचीन ग्रन्थों के अनेक स्थानों में 'इव' के अर्थ में 'चेव' शब्द का प्रयोग मिलता है, 'पाइयसद्दमहण्णवो' में भो उदाहरण के तोर पर दो स्थान का निर्देश करके 'चेव' शब्द को उपमार्थ में लिया है, अस्तु ।
प्राचीन ग्रन्यस्थ लिपि में 'व' और 'ब' का बहुलतया अभेद होने से प्रस्तुत हरिवंशग्रन्थ के कर्ता का नाम 'वंदिक' अथवा 'बंदिक' होगा ऐसा मानना चाहिए ।
धर्मोपदेशमाला-विवरण के प्रस्तुत अवतरण से यह स्पष्ट होता है कि १ हरिवंश के कर्ता वैदिक कवि जैन आचार्य-श्रमण थे और २. वन्दिकाचार्यकृत हरिवंश की भाषा संस्कृत थी।
डा. गुलाबचन्द्र चौधरी ने कुवलयमालाकथा की गाथा के आधार से ही हरिवंश ग्रन्थ के कर्ता विमलसूरि नहीं है ऐसा जो विधान किया है वह उचित है। किन्तु साथ ही साथ उन्होंने उसी गाथा के पदों से हरिवंश ग्रन्थ के फनो 'हग्विर्ष नाम के विद्वान् होने का जो विधान किया गया है वह मेरी समझ में गलत है । उनका यह विधान इसलिए उचित नहीं कि 'वंदियं पि' का रूपान्तर 'वन्धमपि' करते हैं जो कथमपि संभवित्त नहीं ।
यहाँ निर्दिष्ट धर्मोपदेशमाला-विवरण का अवतरण मेरे सम्मान्य स्नेही और मुप्रसिद्ध विद्वान् डा. श्री हरिवल्लभभाई भयाणोजी से मुझे ज्ञात हुआ है पतदर्थ में उनके प्रति आभारभाव व्यक्त करता हूँ।
१. देखिए Proceedings of the Seminar of Scholars in Prakrit & Pali Studies, March 1971, पृ० ७५.
१. वही पृ० ४६