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नगीन जी. शाह
इच्छा-प्रयन्न का कारण शरीर है, अतः इच्छा-प्रयत्न के जनन द्वारा शरीर स्वयं ही अपने आपको प्ररित कर सकता है सा नानना चाहि"; इस प्रकार जैसे स्वशरीर को प्रारत करने के लिए जीव का स्वशरीर के साथ सम्बन्ध जरूरी है वैसे ही परमाणुआं को प्रेरित करने के लिए ईश्वर का भी शरीर के साथ सम्बन्ध जरूरी है। इस शंका का समाधान यह है कि जीव के विषय में इसकी इछा और प्रयत्न का कारण शरीर है किन्तु उत्पन्न हुई इच्छा और प्रयल जब शरीर को प्रेरित करते हैं तब प्रेरणा का कारण शरीर नहीं-उस समय तो शरीर प्रेरणा का कर्म है अर्थात् प्रेरणारूप क्रिया ठारीर पर ही होनी है। इस प्रकार कारकों को कार्यात्पत्ति में प्रेरित करने रूप कतव में शरीर की अपेक्षा है ही ऐना नियम असत्य है, कारण कि शरीरव्यापार के विना कवल इन्छा (will) और प्रयत्न (volitional effort) से ही चेतन (योगी) जड वस्तुओं को प्रेरित करता हुआ दिखाई देता है। यदि कोई कहे कि इच्छा और प्रयत्न की उत्पत्ति के लिए तो शरीर की अपेक्षा है ही-तो उसका उत्तर इतना ही है कि उत्पतिशील (=अनित्य) इच्छा और प्रयत्न के लिए शरीर की अपेक्षा भले ही हो किन्तु जहां इच्छा और प्रयत्न नित्य और स्वासाविक हो वहां उन देना को शरीर की अपेक्षा है सा मानना अनुचित है, व्यर्थ है। ईश्वर में बुद्धि, इच्छा और प्रयत्न नित्य हैं, जीव में वे अनित्य हैं। दोनों ही आत्माएं हैं तो एक में नित्य और दूसरे में वे अनित्य ऐसा क्यों ? आश्रय के भेद से एक ही गुण नित्य और अनित्य जगत में देखने में आता है। उदाहरणार्थ, जलीय और तेजस परमाणुओं में रूप नित्य (=अपाकज) है जब कि पार्थिव परमाणुओं में रूप अनित्य (=पाकज) है।
जीव परमाणुओं को कार्यात्पत्ति में प्रेरित नहीं कर सकते कारण कि जीव स्वकर्मापाजित इन्द्रियों के द्वारा ही विपयां को जानने वाले होने से उनको शरीरोत्पत्ति के पूर्व विपयों का ज्ञान होना ही नहीं तो फिर सर्व विपयों का ज्ञान कैसे हो सकता है ?
और सर्व विषयों के ज्ञान के बिना सृष्टि जैसे कार्य को उत्पन्न करना अशक्य है। अतः असर्वज्ञ जीवों से भिन्न सर्वज्ञ ईश्वर की कल्पना की गई है। ऐसा ईश्वर ही सृष्टि का कर्ना है और जड' परमाणु तथा कर्मों का अधिष्ठाता है ।
ईश्वर एक है या अनेक ? इसके उत्तर में श्रीधर कहता है कि वह एक है, क्यांकि यदि ईश्वर अनेक हां और असर्वज्ञ हों तो जीवों की तरह वे सृष्टि कार्य करने में असमर्थ ही होंगे। यदि ईश्वर को अनेक मान कर सभी को सर्वज्ञ मानने में आवेगा तो एक से अधिक ईश्वर मानने का कोई प्रयोजन भी नहीं रहता क्याकि एक सर्वज्ञ ईश्वर से ही सृष्टि कार्य हो जाता है। तथा सभी ईश्वर सर्वज्ञ होंगे तो भी वे समकक्ष होने से उनके वीच सदा रोकमत्य तो रहेगा ही नहीं। अतः अनेक सर्वज्ञ ईश्वर मानने की अपेक्षा एक सर्वज्ञ ईश्वर ही मानना चाहिए। यदि अनेक सर्वज्ञ ईश्वर मानकर भी उनमें एक के ही अभिप्राय का शेप सभी सर्वज्ञ ईश्वर स्वीकार करके तदनुसार चलते हैं ऐसा सानने में आवे तो भी वह ही वास्तविक ईश्वर कहलाने के लायक है अन्य सर्वज्ञ नहीं। यदि कहां कि सर्वज्ञ