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नगीन जी. गाह होने से उसे स्मृति भी नहीं। उसे आनुसानिक या परोक्षज्ञान है ही नहीं। वह भूतानुग्रहवाला होने से उसमें धर्म स्वाभाविक ही है-जन्य नहीं। उस धर्म का फल परार्थ जगन्निर्माण है। उसमें नित्य सुख्ख है, क्योंकि आगम में उसका वैसा वर्णन है। जो मुखी नहीं होता वह ऐसे कार्य करने की योग्यता नहीं रख सकता।
ईश्वर की ईच्छा भी नित्य है। यहां कोई शंका करता है कि इच्छा को नित्य मानने से सर्वदा जगत की उत्पत्ति होती ही रहेगी और उसका कभी भी अंत नहीं आयेगा। सर्गेच्छा नित्य होने से संहार होगा ही नहीं, अथवा संहारेच्छा नित्य होने से प्रलय की धारा भी रुक नहीं सकती। यह शंका ठीक नहीं। ईश्वर की इच्छा नित्य है. इसका अर्थ यह है कि वह स्वरूप से नित्य है, वह आत्ममनःसंयोग से उत्पाय नहीं; किन्तु उस इच्छा का विषय कभी सर्ग होता है और कभी संहार होता है। मर्ग-संहार के बीच अर्थात जगत की स्थिति की अवस्था में इस वर्स का यह फल इसे मिले ऐसी इच्छा ईश्वर को होती है।
उमका प्रयत्न ग्रह विशेष प्रकार का संकल्प ही है।
इस प्रकार नौ आत्मगुणों में से ईश्वर में ये पांच गुण है --- ज्ञान, सुख, इच्छा, प्रयत्न और धर्म । उसमें दुःख, द्वेष, अधर्म और संस्कार के चार आत्मविशप गुग नहीं । अतः वह एक विशिष्ट प्रकार का आत्मा ही है, आत्मा से भिन्न द्रव्य नहीं'।
ईश्वर के विपय में एक प्रश्न उठाया जाता है-क्रियावान ही कर्ता होता है। ईश्वर तो अशरीरी है. अतः उस में क्रिया संभव नहीं। अतः अशरीरी कर्ता नहीं हो सकता। अशरीरी कर्ता हो ऐसा एक भी उदाहरण दुनिया में देखने या जानने में नहीं आया।
इस प्रश्न के उत्तर में जयन्त कहते हैं कि ईश्वर के विपय में कर्तृत्व का अर्थ है ज्ञान, चिकीर्पा और प्रयत्न (voliticnal effort) का योग (=संबंध)। वह ईश्वर में हैं ही। अशरीररूप जीवात्मा अपने शरीर को प्रेरणा करता ही है। अत: प्रेरणा करने रूप कर्तृत्व के लिए शरीररूप होना आवश्यक नहीं। इच्छामात्ररूप उसका व्यापार होने से अनन्तकार्यो को वह कर सकता है और उसे किसी भी प्रकार का क्लेश होना ही नहीं ।
इच्छामात्र से ही वह परमाणुओं को स्वकार्योत्पत्ति में प्रेरित करता है ऐसा नहीं मान सकते क्योंकि जड परमाणु उसकी इच्छा नहीं जान सकते और इच्छा को जाने बिना प्रवृत्ति कैसे कर सको है? इस प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं कि जीव का अचेतन शरीर जीव की इच्छानुसार बर्ताव करता है तो फिर अचेतन परमाणुओं को ईश्वर की इच्छानुसार चलने में क्या बाधा आ सकनी है ?
ईश्वर सृष्टि क्यों करता है ? ऐसा उसका स्वभाव ही है। कभी वह विश्व का सर्जन करता है और कभी उसका संहार करना है। किन्तु अमुक नियत काल में ही