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________________ ईश्वर १५ से सिद्ध होगा, तो ऐसा कथन भी योग्य नहीं क्योंकि ईश्वर अन्य प्रमाणों से भी सिद्ध होता है 55 । तथा कार्य की विशेषता से ही कर्ता की विशेषता का अनुमान हो सकता है। घूम की विशेषता को प्रत्यक्ष कर के उस पर से अनुमान किया जा सकता है कि उसका कारण चन्दन की अग्नि है, घास-पत्रों की आम नहीं। इस तरह अपरिमित अनन्त प्राणियों के विचित्र सुखदुख के माधनम्प भुवन आदि अनन्त कार्य अतिशय रहित पुरुष नहीं कर सकता । अतः इनका अतिशयवान् विशिष्ट कर्ता ही होना चाहिए ऐसा हम अनुमान से जान सकते है । 37 तीनों लोक के निरवधि प्राणियों के सुख-दुःख के साधनों को किस तरह उत्पन्न करना, उनमें प्रत्येक साधन का प्रयोजन क्या है, उन सब साधनों का किस प्रकार नाश करना --- इन सबको जाननेवाला ही उन सब कार्यों को कर सकता है। इससे सिद्ध होता है कि ईश्वर सर्वज्ञ है "। जिस प्रकार नियन विषय को ग्रहण करनेवाली इन्द्रियों की अपेक्षा इन्द्रियों का प्रेरक जीव सर्वज्ञ है उसी तरह जीवों के कर्मो को अनुरूप फल के साथ जोडनेवाला शक्तिमान ईश्वर पैसा करने में अशक्त जीवों की अपेक्षा सर्वज्ञ है " । असर्वज्ञता का कारण राग आदि दोष है। वे दोष ईश्वर में नहीं। इसीलिए वह सर्वज्ञ है 10 | 9 यह तो इष्ट ईश्वर का ज्ञान नित्य है। सृष्टि की स्थिति की अवस्था में यदि वह ज्ञानरहित हो जाय तो कर्माधीन विविध प्रकार का व्यवहार ही जायगा क्योकि कर्म ईश्वर की प्रेरणा से ही कार्य में प्रवृत्त होते हैं। नहीं । अतः सृष्टि की स्थिति की अवस्था में तो उसका विनाश नहीं, यह नित्य है । प्रलय के समय उसके नाश का कोई कारण न होने से उसका नाश नहीं होता । सर्गकाल में उसकी उत्पत्ति का कोई कारण न होने से उसका उत्पाद नहीं होता । इस प्रकार वह नित्य है 141 एक क्षण भी दुनिया में स्क उसका ज्ञान एक ही है। उसके ज्ञान में कोई अन्तर भेद नहीं आता क्योंकि उसका ज्ञान अतील, अनागत, सूक्ष्म, व्यवहित सभी वस्तुओं को जानता है। वह सभी ज्ञेयों को विपयों को युगपद् जानता है अतः उसके ज्ञान में भेद नहीं पडना । यदि कहो कि वह सभी विषयों को क्रम से जानता है अतः उसके ज्ञान में भेद संभव है. तो यह कथन ठीक नहीं क्योंकि अनन्त विषयों को क्रम से जाना ही नहीं जा सकता, अतः यदि क्रम के मन को मान लिया जायगा तो उसमें अज्ञातृत्व आयेगा और परिणामस्वरूप कर्मफलदानरूप व्यवहार का लोप हो जायेगा * * । ईश्वर का ज्ञान प्रत्यक्ष जैसा होने से प्रत्यक्ष कहलाता है। वह प्रत्यक्ष की तरह इन्द्रसन्निकर्ष से उत्पन्न नहीं होता । अर्थ ईश्वर ज्ञान को उत्पन्न नहीं करते। जितने आत्मगुण ईश्वर में हैं वे सब नित्य हैं क्योंकि वे गुण मत्तःसंयोग से उत्पान नहीं; उन्हें' मनःसंयोग की अपेक्षा नहीं । दुःख और द्वेप उसे है ही नहीं । संस्कार ( भावना) का भी उसे कोई प्रयोजन नहीं, क्योंकि वह सर्वदा सर्वार्थदशी
SR No.520752
Book TitleSambodhi 1973 Vol 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1973
Total Pages417
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size14 MB
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