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________________ मुष्टि करने का और अमुक नियत काल में ही संहार करने का उनका र है ? उत्तर ने जयन्त कहते हैं कि सूर्य को ही देख लीजिग: उनका नि उदय होने का और नियतकाल में अस्त होने का क्या म्यभार नहीं ? बमा में प्रश्न करना अयोग्य है। अथवा ई. वर क्रीडा के लिए जगन केवल दुःखी ही क्रीडा करते हैं ऐसा नहीं किन्तु जो दावी नहीं है वे करते हैं। 1 । अथवा अनुकम्पा से ईश्वर सर्ग-संहार करता है। वहां को सकता है कि प्रलय में जीव दुःखी न होने से अनुकम्पा के पात्र नहीं. ५ प्रति अनुकम्पा से ईश्वर सृष्टि करता है ऐमा मानना योग्य नहीं। का समाधान करते हुए जयन्न कहते हैं कि प्रलय में भी जीव धर्माधर्म से अनुविद्ध होता है। धर्माधर्म की जंजीर में जकडा हान में जीव : प्रवेश नहीं कर सकता । क्या ये जीव अनुकंपा के पात्र नहीं ? है ही। जर का फल नहीं भोग लिया जाता तब तक कर्म का क्षय अशक्य है। मर्ग के के फलों का भोग अशक्य है। इसीलिए धर्म के शुभ फलों के भोग के। ईश्वर स्वर्ग आदि का निर्माण करता है और अधर्म के अगुभ फलों को लिए ईश्वर नरक आदि को बनाता है। कर्मों को भोग कर परिश्र न्न हा आराम के लिए भुवनों का संहार भी ईश्वर करता है। इस प्रकार वह मत्र कृपा का परिणाम है। ईश्वर जगत के सभी कार्यों का संहार एक साथ करता है यह बात उतरती क्योंकि अविनाशी ( नष्ट नहीं हुए.) कर्मा के फलों के उपभोग प्रतिबन्ध उपस्थित नहीं होता। इस शंका के उत्तर में जयन्त कहते हैं । कर्मों की विपाकशक्ति ईश्वरेच्छा से कुण्ठित हो जाती है। उसकी इच्छा कर्म ही फल देते हैं। उसकी इच्छा से कुण्ठित हुए कर्म फल देना बन्द क एसा क्यों ? इसका कारण यह है कि कर्म अचेनन है, अतः चेतन से प्रेरि कर्म स्वकार्य में प्रवृत्त होते हैं । ___ यदि सर्ग-प्रलय और सृष्टि-की-स्थितिदशा में कार्य भी ईश्वरेच्छा हो तो ईश्वरेच्छा को ही मानो, कर्मी (धर्माधर्म) को क्यों मानने हो ? के उत्तर में जयन्त कहते हैं कि कर्म के बिना जगत के वैचच्य की टा होती। अतः कर्म को मानना ही पडेगा । विशेष में वे कहते हैं कि अगर ईश्वरेच्छा को ही सर्ग आदि का कारण माना जायगा तो उसमें तीन दोष (१) ईश्वर में निर्दयता का दोप आता है अथॉन बिना कारग दामण म करनेवाला ईश्वर निर्दय ही नाना जायगा। (२.) वेद के विधि-निषेध । जायेंगे। अर्थात् ईश्वर की इच्छा से ही- कर्म के बिना - शुभाशुभ फला हो सकते हैं तो वेद के विधि-निषेध व्यर्थ हो जायेंगे। और (३) मु ईच्चरच्छा से पुनः संसार में प्रवेश करना पड़ेगा, अर्थात् अनिमोक्षदोप इसीलिए ही न्याय-वैशेपिक कर्मसापेक्ष ईश्वरेच्छा को सर्ग आदि मानते हैं।
SR No.520752
Book TitleSambodhi 1973 Vol 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1973
Total Pages417
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size14 MB
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