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होती। उसमें दुःख नहीं, क्योंकि दुःख का कारण है. अधर्म जिमका मन अभाव है। उसमें दुःख न होने से उसमें पैराग्य भी संभावन नहीं। उसे दम न होने से उसमें द्वेप भी नहीं। हा उसमें अक्लिष्ट और मर्य विषयों में अन्याहन (=फलीभूत होनेवाली) इच्छा है। जैसे उसकी बुद्धि बिलाट नहीं में उसकी हा भी क्लिष्ट नहीं । जैसे उसकी बुद्धि सभी विषयों को जाननी है उसकी टा सभी पदार्थो को बनाने में समर्थ है। जिस तरह उसकी बुद्धि पन कार्य में अव्याहत है-किसी भी विषय को जानने के उसके कार्य में कोई वारक नही है। सकता, ठीक उसी तरह उसकी इच्छा अपने कार्य में अव्याहत है-अर्थाना के अनुरूप फल (कार्य) तुरत ही उत्पन्न होते हैं ।
ईश्वर बद्ध है या मुक्त ? वह बद्ध नहीं क्यों कि उसमें मदैव दुःय का अभय होने से वह अबद्ध ही है। वह मुक्त भी नहीं क्योंकि जो बद्ध होता है. उसमें ही मुक्तता संभव है। ईश्वर को कभी बन्धन था ही नहीं. इमर्माला यह मुक्त भी नहीं ।
कोई शंका करता है कि ईश्वर का जीवात्माओं के माथ काई सम्बन्ध घटिन नहीं हो सकता, अतः ईश्वर को उनका प्रेरक या अधिष्ठाना माना नहीं जा सकता । अर्थन जीवात्माओं में समवायसम्बन्ध से रहनेवाले धर्माधर्म का ईश्वर के साथ न तो साक्षात् सम्बन्ध है और न परम्परा से और जिसके साथ ईश्वर का कोई सम्बन्ध नहीं ऐसे धर्माधर्म को ईश्वर किस प्रकार प्रेरित कर सकते हैं, और अप्रेरित के अचेतन होने से अपने योग्य कार्य करने में प्रवृत्त किस प्रकार हो सकते हैं!
उपर की शंका का समाधान करते हुए उद्योतकर कहते हैं कि ईश्वर और जीवात्मा का सम्बन्ध है। कौनसा सम्बन्ध है ? संयोगसम्बन्ध । "वैशेषिक मतानुसार संयोग गुण है और वह कर्मजन्य होने से अनित्य होता है। दो विभु द्रव्यों के बीच संयोगसम्बन्ध घटित नहीं हो सकता। ईश्वर और जीवात्मा बिनु हैं, अतः उनके बीच संयोगसम्बन्ध नहीं हो सकता "मी शंका के उसर में उद्योतकर कहते हैं कि हम (=नैयायिक) तो अज (नित्य) संयोग का स्वीकार करने हैं। ईश्वर और जीवात्मा के बीच संयोगसम्बन्ध है2 | जो लोग (चशेषिक) अज्ञ संयोग नहीं मानते वे मन के माध्यम से ईश्वर और जीवात्मा के बीच सम्बाध स्थापित करते हैं। मन का ईश्वर के साथ संयोगसम्बन्ध है और ईश्वर के माथ संयुक्त मन का जीवात्मा के साथ सम्बन्ध है। इसी प्रकार वे आत्मा और जीवात्मा के साथ सम्बन्ध घटाते हैं।
ईश्वर और जीवात्मा के बीच का अज संयोगसम्बन्ध व्यापक है या अव्यापक अर्थात वह सम्बन्ध उसके प्रत्येक सम्बन्धी को व्याप्त करके रहता है अथवा प्रत्येक सम्बन्धी के अमुक भाग में ही रहता है ? यह प्रश्न अव्याकरणीय है. अर्थात आत्मा और ईश्वर के बीच अज संयोगसम्बन्ध है इतना ही कहा जा सकता है, इमसे अधिक कुछ भी कहा नहीं जा सकता।