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के. ऋषभचन्द्र
जिनका कथन मुनि धर्मनन्दन वत्सदेश के राजा पुरन्दरदत्त और उनके अमात्य वासव को अपने पास में दीक्षित पाँच मुनियों की कथाओं के रूप में करते हैं : (१) चण्डसोम, (२) मानभट, (३) मायादित्य, (४) लोभदेव और (५) मोहदत्त.
** मुनि धर्मनन्दन द्वारा अपने पाँचों मुनि - शिष्यों को सुनाई गई दृष्टान्तकथा नं. (६) काकोदुम्बरी के फल
(आ) तीर्थंकर धर्मनाथ द्वारा अपने गणधर को देव पद्मसार ( कुवलयचन्द्र का पूर्व-भव ) की उपस्थिति में कही गई कथाएँ : (७) ताराचन्द का निदान, (८) रण्यमूषक
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एक मुनि ( राजा भृगु के पिता) ने दो विद्याधरों को राजा भृगु और राज-पोपट की उपस्थिति में पूर्वार्ध कथा कही और राज- पोपटने कुवलयचन्द्र को उत्तरार्ध कथा कही : (१५) वनसुन्दरी एणिका
(ई) तीर्थंकर महावीर द्वारा कही गई :
* मणिरथकुमार को कही गई उसकी पूर्व-भवकथा : (२१) सुन्दरी और प्रियंकर ** अपने गणधर को कही गई : (२२) कामगजेन्द्र और : ( २३ ) वज्रगुप्त * * * (२४) स्वयंभूदेव को सुनाई गई उसकी आत्मकथा
इस प्रकार 'कथा में कथा' की दृष्टि से देखते हुए इस महाकथा में हमें तृतीय स्तर तक की उपकथाएँ देखने को मिलती हैं । जैनकथासाहित्यकारों की कथा में कथा कहने की यह शैली बहुत प्राचीन हैं । (५) अर्थकथा, कामकथा और धर्मकथा
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प्रारंभ में स्वयं कथाकार ने जो निर्देश किया है उसके अनुसार ही अवान्तर कथाओं को तीन पुरुषार्थों में से किसी एक में स्थान दिया जा सकता है । इनमें से अनेक कथाओं का पर्यवसान पात्रों द्वारा दीक्षा ग्रहण करने में हुआ है अतः प्रधानतः अर्थकथा अथवा कामकथा होते हुए भी कितनी ही कथाएँ धर्मान्त हो गई हैं। मात्र चार कथाएँ ऐसी हैं जो धर्मान्त नहीं हैं, जैसे नं ० (६), (१०), (१४) और (२१) ।
अ. अर्थकथाओं में नं० (३), (४), (९), (१६), (१८), और (२४) को समाविष्ट किया जा सकता है ।