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________________ कृष्णकुमार दीक्षित एक कैसे । लेकिन हमारा दैनंदिन अनुभव यह सिद्ध करता प्रतीत नहीं होता कि कोई एक ही तत्व सभी मनुष्यों की शरीर शक्तियों के ऊपर और साथ ही सभी विश्वस्तरीय शक्तियों के उपर भी शासन करता है । इसलिए याज्ञवल्क्यने यह सिद्ध करना आवश्यक समझा कि आत्मा (ब्रह्म) के स्वरूप का साक्षात्कार हमें दैनंदिन अनुभव के दौरान में नहीं होता बल्कि सुपुप्तिकाल में होता है ( और इस स्वरूप की हल्की झांकी हमें प्राप्त होती है स्वप्नकाल में ) । साथ ही याज्ञवल्क्यने इस शंका का समाधान करना भी आवश्यक समझा कि सुषुप्तिकाल में तो हमें किसी प्रकार का ज्ञान होता प्रतीत नहीं होता; उनका तर्क है कि आत्मा सचमुच ज्ञान का विषय नहीं क्योंकि ज्ञाता - जैसा कि आत्मा है - ज्ञान का विषय हो ही नहीं सकता, लेकिन आत्मा अनुभूति का विषय अवश्य है और सुषुप्तिकाल में हमें आत्मा की अनुभूति होतो ही है । यही कारण है कि प्रायः विद्वान् याज्ञवल्क्य के मत को उत्तरकालीन आत्माद्वैत (ब्रह्माद्वैत) का - तथा उनकी चिन्तन प्रणाली को उत्तरकालीन सभी रहस्यवादी चिन्तन प्रणालियों का बीजरूप मानते है । हां, यद्यपि याज्ञवल्क्य ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है कि प्रत्येक मनुष्य की व्यक्तिगत आत्मा विश्व आत्मा से सर्वथा एकाकार है उन्होंने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन कदापि नहीं किया है कि एक आत्मा के अतिरिक्त शेष सभी प्रतीतियां भ्रान्तिजनित प्रतीतियां है । लेकिन जब वे एक मनुष्य की व्यक्तिगत आत्मा के व्यक्तित्व को एक भ्रान्तिजनित प्रतोति मानने के लिए बाध्य हैं तब वे इस प्रकार की तर्कणा के लिए भी द्वार खोल ही देते हैं कि हमारे दैनंदिन अनुभव की सभी जड़-चेतन प्रतीतियां भ्रान्ति-जनित प्रतीतियां है और उत्तरकालीन अद्वैतवेदान्तियों ने जब इस प्रकार की तर्कणा को सचमुच प्रस्तुत किया तथा अपने मत के समर्थन में याज्ञवल्क्य के वचनों को उद्धृत किया तब तत्त्वतः वे कदाचित् गलती पर न थे भले ही अपने ऊहापोह के दौरान में वे इन वचनों में आए इन उन शब्दों का अर्थ तोड़ने मरोड़ने पर जब तब बाध्य हुए ।
SR No.520752
Book TitleSambodhi 1973 Vol 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1973
Total Pages417
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size14 MB
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