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कृष्णकुमार दीक्षित
सोचने के लिए आधार है कि यह वर्णन अपेक्षाकृत उत्तरकालीन है । लेकिन यह अच्छा है इस बात का कि उपनिषदकार एक शरीरावयव, उसकी शक्ति तथा बाह्य विश्व के एक घटक को आमने सामने रखकर कैसे देखा करते । साधारणतः एक शरीरावयव तथा उपी शक्ति के चोच भेद नहीं किया गया है और इसलिए हमें आमने सामने रखकर दिए गए हैं एक शरीरावयव (या कह लिया जाए, एक शरीर शक्ति) तथा वाद्यविश्व का एक घटक उदाहरण के लिए, बार बार हमें आमने सामने रखकर दिखलाए गए हैं वाक् तथा अग्नि, प्राण तथा वायु, चक्षु तथा आदित्य, आदि आदि । प्रश्न उठता है कि इस सब का क्या अर्थ ? सोचने पर लगता है कि इसका अर्थ और कुछ नहीं उपनिषद्कारों का यह विश्वास हैं कि उन उन शरीरस्तरीय प्रक्रियाओं के लिए जो कारण उत्तरदायी हैं वे ही उन-उन विश्वस्तरीय प्रक्रियाओं के लिए भी । किस शरीरस्तरीय प्रक्रिया को किम विश्वस्तरीय प्रक्रिया के समानान्तर रखा जाए इस सम्बन्ध में सभी उपनिषद् - कार एकमत नहीं लेकिन जहां तक उनके बीच अथवा उनमें से अधिकांश क वाच इस सम्बन्ध में ऐकमत्य है वहां भी हमें अनुमान करना सरल नहीं कि क्यों अमुक शरीरस्तरीय प्रक्रिया को अमुक विश्वस्तरीय प्रक्रिया के समानान्तर रखा गया है । उदाहरण के लिए, यह कतई समझ में नहीं आता कि मन को चन्द्रमा के समानान्तर रखने का कारण क्या रहा होगा । ध्यान देने की बात इतनी हो कि जब शरीरस्तरीय शक्तियों के ऊपर रहकर उनपर शासन करने वाले तत्व रूप में 'आत्मा' की कल्पना की गई होगी तभो विश्वस्तरीय शक्तियों के ऊपर रहकर उनपर शासन करनेवाले तत्त्व के रूप में 'ब्रह्म' की कल्पना की गई होगी और क्योंकि उन उन शरीरस्तरीय शक्तियों को किसी न किसी अर्थ में उन उन विश्वस्तरीय शक्तियों से एकरूप मानने की परम्परा थी 'आत्मा' को किसी न किसी अर्थ में 'ब्रह्म' से एकरूप मान लिया गया ।
अन्त में विचार करने के लिए रह जाती हैं छान्दोग्य में उद्दालक के मुख से कराई गई चर्चाएं तथा बृहदारण्यक में याज्ञवल्क्य के मुख से कराई गई चर्चाएं | उद्दालक की चर्चाओं में ध्यान देने योग्य बात यह है कि वहां विस्तार से तथा प्रयोगों द्वारा सिद्ध करके दिखाया गया है कि वे वे विश्वस्तरीय शक्तियां उन उन शरीरस्तरीय शक्तियों के रूप में परिवर्तित कैसे हो जाती हैं। यहां दूसरी ध्यान देने योग्य बात यह है कि विश्वस्तरीय शक्तियों को उद्दालक को सूची उनकी परम्परागत