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________________ २९ गांधर्वमां रिक्ति अनन्तत्वान्न सास्त्यात्तरप्येते निरूपिताः। रक्तिः स्वरपरिज्ञानं वर्णानां च विचित्रिता ॥ इति प्रयोजनं प्राहुरलङ्कारस्य मूरयः । पार्श्वदेवे एक 'रंगरक्ति' नामनो स्थाय वर्णवतां तेन लक्षणमा 'रक्ति' अने 'रागछाया'नो आश्रय अंगभूत होवानुं कर्तुं छेरक्तिस्वरूपं रागस्याः रागच्छाया तदाश्रया ॥ -सङ्गीतसमयसार २. ६० 'रक्त' स्थायने वर्णवतां शार्ङ्गदेव तेने रक्तिथी उत्कर्षित होवार्नु कहे छे : रक्तेरुकतो रक्तेरुक्तः स्थायो मनीषिभिः । __ -सङ्गीतरत्नाकर. ३. महीं रक्त'नी व्याख्या अध्याहार राखी छे; पण अन्यत्र 'रक्तिमान' शब्द समजावतां तेने 'अनुरक्तिजनक' कह्यो छे : यथा अनुरक्तेस्तु जनको रक्तिमानभिधीयते ।। -सङ्गीतरत्नाकर ३.१०. 'द्रत' शब्दथी प्रगट थता अंशावधान स्थायमा रक्तिनी उपस्थितिनो उल्लेख शार्ङ्गदेवना तद्विषयक विधानमा विवक्षित छ : रक्तेद्भुतस्य शब्दस्य भृतस्यांशावधानयोः ॥ -सङ्गीतरत्नाकर ३.१० 'रंजकता'ना स्वभावथी 'रक्ति', गांधर्वमा एक बाजुथी 'स्वरगर्भित' होवानुं अपेक्षित छे अने तेनी अनुभूति वीणा-वंशादि वाद्योना सुर साथेना तेना 'ऐक्य' अने 'उर्जस्'थो प्रगटे छे, तो बीजी बाजु ते स्वरोना विविध प्रयोगोअलंकारो, अल्पत्व, स्पर्श, रागछायाश्रितत्व इत्यादि वैचित्र्यपूर्ण, चमत्कृतियुक्ति क्रियाओनी असरोनी पडछे रहे छे. 'रक्तिधर्म'नो त्याग थयो होय तेवां गायनवादनमा चित्तने आनंदविभोर करी शके तेवां तत्वो पछी बहु जूजवां रहे छे. 'रक्ति' गुण ए गांधर्व-कारणनी सफळ, गीत-वादननी मूलभूत अने अनिवार्य, अपरिहार्य आवश्यकता छे. 'रक्ति'नो ज्या संपात थाय त्यां 'निर्घोपता' (खोखरापY) टळी तेने स्थाने रंजनात्मक 'प्रभा'नो उदय थाय छे अने जो 'रक्ति'नी साथे तेना 'नैरन्तर्य' पर अधिकार मेळवी शकाय, रक्ति'ने सतत (हरेक स्वर माटे ने गायन-वादननी हरक्षणे)
SR No.520752
Book TitleSambodhi 1973 Vol 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1973
Total Pages417
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size14 MB
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